Book Title: Acharang Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 372
________________ अध्ययन १६ ३५९ वेग से भी पर्वत कम्पायमान नहीं होता उसी प्रकार संयमशील मुनि भी इन परीषह उपसर्गों के होने पर संयम से विचलित न होवे। विवेचन - बाल अज्ञानी जनों द्वारा अत्यन्त प्रबलता से किये गये कठोर और तीव्र अमनोज्ञ शब्दों द्वारा आक्रोशित किया जाने पर तथा शीत उष्ण आदि दुःखोत्पादक परीषह दिया जाने पर आत्मज्ञानी मुनि मन को द्वेषभाव आदि से दूषित किये बिना अकलुषित . अत:करण से सहन करे क्योंकि वह मुनि ज्ञानी है। 'ये मेरे ही पूर्वकृत कर्मों का फल है' यह मान कर वैराग्य भावना से इस तथ्य के विचार से सहन करे कि - आक्रुष्टेन मतिमता तत्त्वार्थ विचारणे मतिः कार्या। यदि सत्यं कः कोपः स्यादनृतं किं नु कोपेन?॥ - अर्थ - बुद्धिमान पुरुष को आक्रोश का प्रसङ्ग आने पर तत्त्वार्थ का विचार करने में अपनी बुद्धि लगानी चाहिए कि यदि इस आक्रोश करने वाले पुरुष का कथन सत्य है तो उसके लिये क्रोध क्यों करना चाहिए? क्योंकि यह ठीक बात कह रहा है और यदि उसका कथन असत्य है तो उस पर क्रोध करने से क्या लाभ? इस प्रकार ज्ञानी साधक मन से भी. उन अनार्य पुरुषों पर द्वेष न करें। जब मन से भी द्वेष न करे तो फिर वचन और काया से तो करने का प्रश्न ही नहीं रहता है। .. जिस प्रकार प्रबल झंझावात एवं आंधी से भी पर्वत कम्पायमान नहीं होता है उसी प्रकार विचार शील साधक इन परीषह उपसर्गों के आने पर संयम से थोड़ा सा भी विचलित न होवे। रजत-शुद्धि का दृष्टान्त व कर्ममल शुद्धि की प्रेरणा उवेहमाणे कुसलेहिं संवसे, अकंतदुक्खी तस थावरा दुही। अलूसए सव्वसहे महामुणी, तहा हि से सुसमणे समाहिए॥४॥ कठिन शब्दार्थ - उवेहमाणे - सहन करता हुआ या उपेक्षा करता हुआ, अकंतदुक्खीअकान्त दु:खी अर्थात् दुःख से दुःखी, अलूसए - परिताप न देता हुआ, सुसमणे - सुश्रमणश्रेष्ठ श्रमण। भावार्थ - परीषह उपसर्गों को सहन करता हुआ अथवा माध्यस्थ भाव का अवलम्बन करता हुआ वह मुनि गीतार्थ मुनियों के साथ रहे। त्रस एवं स्थावर सभी प्राणियों को दुःख Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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