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अध्ययन १६
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सामान्य आत्माओं के लिए पार करना कठिन है। इस संसार सागर में मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग रूप आस्रव से कर्म रूपी जल आता रहता है। इसलिए सर्वप्रथम इस संसार समुद्र के स्वरूप का ज्ञान करना चाहिए कि आस्रव संसार परिभ्रमण का कारण है और संवर एवं निर्जरा संसार से पार होने का साधन है इसलिए ज्ञानी फरमाते हैं कि ज्ञ परिज्ञा से संसार के स्वरूप को जानकर, प्रत्याख्यान परिज्ञा से उसका त्याग कर दे। उससे संसार सागर से पार हो जाएगा। क्योंकि ज्ञान पूर्वक क्रिया करने वाला साधक ही संसार समुद्र को उल्लंघन कर मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। ऐसे मुनि को अंतकडे" कर्मों का अन्त करने वाला कहा गया है।
जहा हि बद्धं इह माणवेहिं, जहा य तेसिं तु विमोक्ख आहिओ। अहा तहा बंध विमोक्ख जे विऊ, से हु मुणी अंतकडे त्ति वुच्चइ॥११॥
कठिन शब्दार्थ - माणवेहिं - मनुष्यों ने, विमोक्ख - विमुक्त, अहा - यथा, तहा - तथा।
- भावार्थ - मनुष्यों ने इस संसार में आस्रव का सेवन करके जिस प्रकार कर्म बांधे हैं उसी प्रकार सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तप के द्वारा उन कर्मों से मुक्त हुआ जाता है यह भी बताया गया है। इस प्रकार जो विद्वान् मुनि बंध और मोक्ष के यथार्थ स्वरूप को जानता है वह मुनि संसार का या कर्मों का अंत करने वाला कहा गया
. विवेचन - प्रस्तुत गाथा में कर्म बंध और उससे मुक्त होने का उपाय बताया गया है। आस्रव कर्म आने का द्वार है तो संवर आते हुए कर्मों को रोकने का उपाय है। निर्जरा के द्वारा पूर्वकृत कर्मों का क्षय होता है। इस प्रकार कर्म बंध और कर्मों से मुक्ति का यथार्थ स्वरूप जान कर सम्यक् प्रवृत्ति करने वाला संसार का अंत कर निर्वाण को प्राप्त करता है।
इमंमि लोए परए य दोसु वि, ण विज्जइ बंधणं जस्स किंचि वि। से हु णिरालंबणमप्पइट्ठिए, कलंकली भावपहं विमुच्चइ॥१२॥त्तिबेमि॥
॥सोलसमं विमुत्तिज्झयणं समत्तं॥
॥ सदाचार णाम बीओ सुयक्खंधो समत्तो॥ • कठिन शब्दार्थ - णिरालंबणं - निरालम्बन-आलम्बन रहित, अप्पइट्ठिए - अप्रतिष्ठित,
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