Book Title: Acharang Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 377
________________ ३६४ आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध ser.or...0000000000000000r.resort.....000000000000000000 भावार्थ - जिस प्रकार सर्प अपनी जीर्ण त्वचा-कांचली को त्याग कर उससे मुक्त (पृथक्) हो जाता है उसी प्रकार मूल गुण और उत्तर गुणों को धारण करने वाला शास्त्रोक्त क्रियाओं का पालक मुनि मैथुन से सर्वथा निवृत एवं इहलोक परलोक के सुखों की आशा से रहित माहन-भिक्षु नरकादि दुःख रूप शय्या या कर्म बंधनों से मुक्त हो जाता है। . विवेचन - प्रस्तुत गाथा में सर्प का उदाहरण देकर बताया गया है कि जैसे सर्प अपनी पुरानी कैंचुली को छोड़ कर शीघ्रगामी और हलका हो जाता है उसी प्रकार जो मुनि सावध कार्यों, विषयविकारों एवं भौतिक सुखों की इच्छा का त्याग कर देता है वह दुःखमय संसार से मुक्त हो जाता है। मूल गाथा में "उवरय मेहुणा" (मैथुन से उपरत) शब्द दिया यह उपलक्षण मात्र है । इससे प्राणातिपात विरमण आदि पांचों महाव्रतों का ग्रहण कर लेना चाहिए। . ठाणांग सूत्र के चौथे ठाणे में चार प्रकार की दुःख शय्या और चार प्रकार की सुख शय्या का वर्णन किया गया है। महासमुद्र दृष्टान्त द्वारा कर्म अन्त करने की प्रेरणा : . जमाहु ओहं सलिलं अपारयं, महासमुदं व भुयाहिं दुत्तरं। अहे य णं परिजाणाहि पंडिए, से हु मुणी अंतकडे त्ति वुच्चइ॥१०॥ कठिन शब्दार्थ - जं - जो, आहु - कहा है, ओहं - ओघरूप, सलिलं - जल, अपारयं - जिसका पार नहीं आता, भुयाहिं - भुजाओं से, दुत्तरं - दुस्तर, परिजाणाहि - ज्ञ परिज्ञा से जान कर प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग करे, अंतकडे - अंतकृत-कर्मों का अंत करने वाला। __ भावार्थ - तीर्थंकर भगवन्तों ने फरमाया है जैसे अपार जल वाले.महासमुद्र को भुजाओं से तैरना दुस्तर है वैसे ही संसार रूपी महासमुद्र को पार करना दुष्कर है अतः इस संसार समुद्र के स्वरूप को ज्ञ परिज्ञा से जान कर प्रत्याख्यान परिज्ञा से उसका त्याग कर दे। इस प्रकार त्याग करने वाला पंडित मुनि कर्मों का अंत करने वाला कहलाता है। . विवेचन - प्रस्तुत गाथा में ज्ञानियों ने संसार को महासमुद्र की उपमा देकर उससे पार पाने का उपाय बताया है। समुद्र में अपरिमित जल है अनेक नदियाँ आकर मिलती हैं इसलिए उसे भुजाओं से तैर कर पार करना कठिन है। इसी तरह यह संसार समुद्र भी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 375 376 377 378 379 380 381 382