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अध्ययन १६ *0000000000000000..........rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr.
मान, पूजा, प्रतिष्ठा की भावना और इहलौकिक एवं पारलौकिक सुखों की अभिलाषा भी संयम से पतित होने का कारण बन सकती है क्योंकि इनके वशीभूत बना हुआ आत्मा अनेक प्रकार के बुरे और पापकर्म कर सकता है। इसलिए साधक को इन सब के कटु परिणामों को जानकर इनसे दूर रहना चाहिये। इन से सर्वथा पृथक् रहना चाहिए। जो ऐसा रहता है वह साधक वास्तव में पण्डित है ज्ञानी है और वही साधक कर्म बन्धन से मुक्त होकर सिद्ध गति को प्राप्त कर सकता है।
तहा विमुक्कस्स परिणचारिणो, धिइमओ दुक्खखमस्स भिक्खुणो। विसुज्झइ जंसि मलं पुरेकडं, समीरियं रुप्पमलं व जोइणा॥८॥
कठिन शब्दार्थ - विमुक्कस्स - विमुक्त-सर्वसंग से रहित, परिणचारिणो - ज्ञान पूर्वक आचरण करने वाला, धिइमओ - धृतिमान्-धैर्यवान्, समीरियं - समीरित-प्रेरित किया हुआ, रुप्पमलं - चांदी का मैल, जोइणो - अग्नि से।
भावार्थ - जिस प्रकार अग्नि से चांदी का मैल अलग हो जाता है उसी प्रकार सर्व संगों से विमुक्त ज्ञान पूर्वक क्रिया करने वाला धैर्यमान एवं सहिष्णु साधक पूर्वकृत कर्ममल को दूर कर विशुद्ध हो जाता है।
विवेचन - जैसे चांदी पर लगे हुए मैल को अग्नि द्वारा दूर कर दिया जाता है। उसी प्रकार कर्म मैल को ज्ञान पूर्वक आचरण करके हटाया जा सकता है। ज्ञान पूर्वक की गयी क्रिया ही आत्म विकास में सहायक होती हैं। जैसे चांदी आग में तपकर शुद्ध होती है उसी तरह तप और परीषह उपसर्गों की आग में तपकर साधक की आत्मा भी शुद्ध बन जाती है। ... इस गाथा में यह बतलाया गया है कि साधना करने वाले साधक में धैर्य और सहिष्णुता का होना भी आवश्यक है क्योंकि धैर्यवान् और सहिष्णु साधक ही परीषह उपसर्गों में अडोल रह सकता है।
. भुजंग दृष्टान्त द्वारा बंधन मुक्ति की प्रेरणा से हु परिण्णा समयंमि वट्टइ, णिराससे उवरय मेहुणा चरे।
भुयंगमे जुण्णतयं जहा जहे, विमुच्चइ से दुहसिज्ज माहणे॥९॥ .. कठिन शब्दार्थ - परिण्णा - परिज्ञा-परिज्ञान, समयंमि - समय-सिद्धान्त में, णिराससेनिराशंस-आशंसा से रहित, उवरय - उपरत, भुयंगमे - भुजंगम-सर्प, जुण्णतयं - जीर्णत्वचाकांचली को, विमुच्चइ - विमुक्त होता है, दुहसिज - दु:ख रूप शय्या से।
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