Book Title: Acharang Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध
फरमाते हैं कि इस मनुष्य भव में ही धर्म क्रिया करने की योग्यता है । इसलिए भगवान् के द्वारा फरमाये हुए पांच महाव्रतों को अङ्गीकार करके कर्म बन्धनों को तोड़ कर अजर-अमर होकर अनन्त अव्याबाध सुखों को प्राप्त करने का अर्थात् सिद्ध पद को प्राप्त करने का यह अमूल्य अवसर है। अतः बुद्धिमानों का कर्त्तव्य है कि ऐसे अमूल्य अवसर को व्यर्थ नहीं खो देना चाहिए। अर्थात् कामभोगों में आसक्त होकर आरम्भ परिग्रह में जीवन को नहीं खो देना चाहिए।
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सिएहिं भिक्खू असिए परिव्वए, असज्जमित्थीसु चइज्ज पूयणं । अणिस्सिओ लोगमिणं तहापरं, णमिज्जइ कामगुणेहिं पंडिए ॥ ७ ॥
कठिन शब्दार्थ - सिएहिं कर्म या गृहपाश में बद्ध जीवों से, असिए - असितपाश से निर्गत अर्थात् कर्म बन्धनों से रहित, असजं आसक्त न होता हुआ, इत्थीसु - स्त्रियों में, चइज्ज - त्याग कर देवे, पूयणं पूजा - मान सत्कार की चाह को, अणिस्सिओअनिश्रित, मिज्जइ - स्वीकार करता है ।
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भावार्थ - साधु कर्मपाश से बंधे हुए गृहस्थों या अन्यतीर्थियों के संसर्ग (संपर्क) से रहित होकर संयम में विचरण करे तथा स्त्रियों के संग का त्याग करके पूजा सत्कार की लालसा को छोड़े और इहलोक तथा परलोक के सुखों की कामना नहीं करता हुआ अनिश्रितनिस्पृह होकर रहे । कामभोगों के कटु विपाक को देखने वाला पंडित मुनि शब्दादि कामगुणों को स्वीकार न करे ।
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विवेचन प्रस्तुत गाथा में राग द्वेष से युक्त कर्मपाश में आबद्ध गृहस्थों एवं अन्यतीर्थियों का संसर्ग आत्मसाधना में बाधक होने के कारण त्याज्य बताया गया है। क्योंकि गृहस्थ और अन्यमति परिव्राजकों के सम्पर्क से उसके भव में रागद्वेष की भावना जागृत हो सकती है और आध्यात्मिक साधना पर संशय हो सकता है। दूसरी बात यह हैं कि साधक का स्वाध्याय और चिन्तन करने का अमूल्य समय जिसके द्वारा वह आत्मा पर लगे हुए कर्म मल को दूर करके आध्यात्मिक साधना के मार्ग पर आगे बढ़ता है। वह अमूल्य समय व्यर्थ की बातों में नष्ट हो जायेगा इस प्रकार उनका संसर्ग आत्म-साधना में बाधक होने के कारण त्याज्य बतलाया गया है । इसी तरह स्त्रियों के संसर्ग से भी विषय वासना जागृत एवं उद्दीप्त हो सकती है और संयम के लिए घातक बन सकती है।
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