Book Title: Acharang Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 373
________________ ३६० आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध ..........................morterrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrier अप्रिय लगता है अतः उन्हें दुःखी देख कर किसी प्रकार का परिताप न देता हुआ पृथ्वी की भांति सभी परीषह उपसर्गों को सहन करने वाला महामुनि सुश्रमण-श्रेष्ठ श्रमण कहा जाता विवेचन - मुनि संसार के यथार्थ स्वरूप का ज्ञाता और द्रष्टा होता है अतः वह परीषह और उपसर्गों से विचलित नहीं होता है क्योंकि वह यह भी जानता है कि प्रत्येक प्राणी को सुख प्रिय लगता है और दुःख अप्रिय लगता है। संसार में एकेन्द्रिय आदि सभी प्राणी दुःखों से पीड़ित हैं। इसलिये वह किसी भी प्राणी को संक्लेश और परिताप नहीं देता। वह दूसरे प्राणियों से मिलने वाले अपने दुःखों को समभाव पूर्वक सहन करता है। परन्तु अपनी तरफ से किसी भी प्राणी को दुःख नहीं देता है यह उसकी उत्कृष्ट साधुता है। इस विशिष्ट साधना के द्वारा अपनी आत्मा का कल्याण तो करता ही है किन्तु अन्य प्राणियों को भी कल्याण करने में सहायक बनता है। ऐसे मुनि को गीतार्थ और विशिष्ट ज्ञानियों के साथ रहना चाहिए ताकि उसकी साधना आगे से आगे बढ़ती रहे। विऊ णए धम्मपयं अणुत्तरं, विणीय तण्हस्स मुणिस्स ज्झायओ। समाहियस्स अग्गिसिहा व तेयसा, तवो य पण्णा य जसो य वड्डइ॥५॥ कठिन शब्दार्थ - णए - नत-विनयवान्, विऊ - विद्वान, विणीयतण्हस्स - तृष्णा को दूर करने वाले, ज्झायओ - धर्मध्यान करने वाले, समाहियस्स - समाधिवान् के, अग्गिसिहा - अग्नि शिखा। भावार्थ - क्षमा मार्दव आदि दस प्रकार के श्रेष्ठ धर्म में प्रवृत्ति करने वाला विनयवान् एवं ज्ञान संपन्न विद्वान् मुनि जो तृष्णा रहित होकर धर्म ध्यान में संलग्न है और चारित्र न में सावधान है उसके तप, प्रज्ञा और यश में अग्नि शिखा के तेज की भांति वृद्धि होती है। विवेचन - जिस प्रकार निर्धूम अग्नि शिखा तेजस्वी और प्रकाशवान् होती है उसी प्रकार प्रभु आज्ञानुसार संयम का पालन करने वाले विनयी शिष्य के तप, तेज, प्रज्ञा और यश में उत्तरोत्तर वृद्धि होती है जिससे वह तेजस्वी और प्रकाश युक्त बन जाता है। दिसोदिसिंऽणंतजिणेण ताइणा, महव्वया खेमपया पवेइया। महागुरु णिस्सयरा उईरिया, तमेव तेउत्ति दिसं पगासया॥६॥ पार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382