Book Title: Acharang Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

Previous | Next

Page 350
________________ अध्ययन १५ +00000000000000000000000000000000000000000000000000000000 पाणाई भूयाइं जीवाइं सत्ताई अभिहणिज वा, वत्तिज वा, परियाविज वा, लेसिज वा, उद्दविज वा, इरियासमिए से णिग्गंथे, णो इरियाअसमिए त्ति पढमा भावणा॥१॥ कठिन शब्दार्थ - अणइरियासमिए - ईर्या समिति से रहित। भावार्थ - उस प्रथम महाव्रत की पांच भावनाएँ होती है। उसमें से पहली भावना हैनिर्ग्रन्थ ईर्या समिति से युक्त होता है, ईर्या समिति से रहित नहीं। केवली भगवान् कहते हैं कि ईर्यासमिति से रहित निर्ग्रन्थ प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व का हनन करता है, धूल आदि से ढकता है दबा देता है, परिताप देता है या पीडित करता है। इसलिए निर्ग्रन्थ ईर्यासमिति से युक्त हो कर रहे, ईर्या समिति से रहित होकर नहीं। यह प्रथम भावना है। विवेचन - भावना का अर्थ टीकाकार ने इस प्रकार दिया है - "प्राणातिपातादि निवृत्ति लक्षण महाव्रत संरक्षणाय भाव्यन्ते इति भावना" अर्थ - प्राणातिपात मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह से निवृत्ति रूप पांच महाव्रतों की सुरक्षा के लिए जो भावित की जाती हैं, उन्हें 'भावना' कहते हैं। इन भावनाओं को भावित करने से महाव्रतों के पालन में दृढ़ता आती है और उनमें किसी प्रकार का अतिचार नहीं लगता है। महाव्रतों का निरतिचार पालन करने से उत्कृष्ट भावना बनने पर तीर्थकर गोत्र बंधता है। प्रत्येक महाव्रत की ५-५ भावनाएँ हैं। चूर्णिकार ने विवेचन करते हुए कहा है - आत्मा को उन प्रशस्त भावों से भावित करना 'भावना' है। जैसे शिलाजीत के साथ लोहरसायन की भावना दी जाती है। कोद्रव की विष के साथ भावना दी जाती है। इसी प्रकार ये भावनाएं हैं। ये चारित्र भावनाएं हैं। महाव्रतों के गुणों में वृद्धि करने हेतु ये भावनाएं बनाई गई हैं। प्रस्तुत सूत्र में प्रथम महाव्रत की प्रथम भावना का उल्लेख किया गया है। प्रथम भावना ईर्या समिति से संबद्ध है। जो विवेक पूर्वक ईर्यासमिति का पालन करते हुए चलता है वह पाप कर्म का बंध नहीं करता है। अतः चलने फिरने में विवेक और यतना रखना साधु के लिये अत्यंत आवश्यक है। __ प्रश्न - मूल पाठ में प्राण, भूत, जीव और सत्त्व ये चार शब्द दिये हैं। इनका क्या अर्थ है? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382