Book Title: Acharang Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 363
________________ ३५० आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध vertorrotoroooooooooooooooooooorrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr. और ब्रह्मचर्य का भंग करने वाला होता है तथा शांति रूप केवली प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। अतः निर्ग्रन्थ साधु को स्त्रियों की बार-बार कथा नहीं करनी चाहिये। यह प्रथम भावना है। इसके पश्चात् दूसरी भावना यह है - निर्ग्रन्थ साधु कामराग से स्त्रियों की मनोहर एवं मनोरम इन्द्रियों को सामान्य अथवा विशेष रूप से न देखे। केवली भगवान् कहते हैं कि - स्त्रियों की मनोहर मनोरम इन्द्रियों को कामराग पूर्वक सामान्य या विशेष रूप से देखने वाला साधु शांति रूप चारित्र और ब्रह्मचर्य का भंग करने वाला होता है तथा शांति रूप केवली प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है अतः निर्ग्रन्थ को स्त्रियों की मनोहर एवं मनोरम इन्द्रियों को कामराग पूर्वक सामान्य या विशेष रूप से नहीं देखना चाहिये। यह दूसरी भावना है। तदनन्तर तीसरी भावना यह है-निर्ग्रन्थ साधु स्त्रियों के साथ की हुई पूर्वरति और पूर्वकृत कामक्रीडा का स्मरण न करे। केवली भगवान् कहते हैं कि स्त्रियों के साथ की हुई रति और पूर्वकृत कामक्रीडा का स्मरण करने वाला निर्ग्रन्थ शांति रूप चारित्र तथा ब्रह्मचर्य का नाश करने वाला होता है एवं शांतिरूप केवली प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। अतः निर्ग्रन्थ साधु स्त्रियों के साथ की हुई पूर्वरति और पूर्वकृत काम क्रीड़ा का स्मरण न करे। यह तीसरी भावना है। ___ इसके बाद चौथी भावना यह है - निर्ग्रन्थ परिमाण से अधिक आहार पानी एवं प्रणीत रस प्रकाम भोजन-स्निग्ध सरस स्वादिष्ट भोजन का उपभोग न करे। केवली भगवान् का कथन है कि जो निर्ग्रन्थ परिमाण से अधिक आहार पानी सेवन करता है और स्निग्ध सरस स्वादिष्ट भोजन करता है वह शांति रूप चारित्र एवं शांतिरूप ब्रह्मचर्य को भंग करने वाला होता है तथा शांतिरूप केवली प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है अतः निर्ग्रन्थ को अतिमात्रा में आहार पानी का सेवन या सरस स्निग्ध स्वादिष्ट भोजन का उपभोग नहीं करना चाहिये। यह चौथी भावमा है। इसके फा पांचवीं भावना इस प्रकार है - निम्रन्थ स्त्री, पशु, पण्डग (नपुंसक) से युक्त शय्या और मालन आदि का सेवन न करे। केवली भगवान् कहते हैं कि जो निर्ग्रन्थ स्त्री-पशुनपुंसक से युक्त शय्या और आसन आदि का सेवन करता है वह शांति रूप चारित्र और शांति रूप ब्रह्मचर्य का भंग करने वाला होता है तथा शांति रूप केवली प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382