Book Title: Acharang Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 361
________________ ३४८ ___आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध भावार्थ - इस प्रकार पांच भावनाओं से युक्त तीसरे महाव्रत का सम्यक् प्रकार से काया से स्पर्श करने, पालन करने, गृहीत महाव्रत को भली भांति पार लगाने, उसका कीर्तन करने तथा उसमें अंत तक अवस्थित रहने पर भगवान् की आज्ञा का आराधन हो जाता है। यह अदत्तादान विरमण रूप तीसरा महाव्रत है। हे भगवन् ! मैं इसमें उपस्थित होता हूँ। अहावरं चउत्थं महव्वयं पच्चक्खामि सव्वं मेहुणं से दिव्वं वा, माणुसं वा, तिरिक्खजोणियं वा, णेव सयं मेहुणं गच्छिजा, णेव अण्णं मेहुणं गच्छाविजा, मेहुणं गच्छंतं अण्णवि ण समणुजाणिजा जावजीवाए तिविहं तिविहेणं मणसा वयसा कायसा तस्स भंते! पडिक्कमामि जिंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि। भावार्थ - इसके पश्चात् हे भगवन्! मैं चतुर्थ महाव्रत अंगीकार करता हूँ। इसमें समस्त प्रकार के मैथुन सेवन का प्रत्याख्यान करता हूँ। देव संबंधी, मनुष्य संबंधी और तिर्यंच संबंधी मैथुन का स्वयं सेवन नहीं करूँगा, न दूसरे से सेवन कराऊँगा और न ही मैथुन सेवन करने वाले का अनुमोदन करूँगा। इस प्रकार मैं यावजीवन के लिये तीन करण तीन योग (मन, वचन, और काया) से मैथुन सेवन रूप पाप से निवृत्त होता हूँ। हे भगवन्! मैं उस पूर्वकृत पाप का प्रतिक्रमण करता हूँ अर्थात् उस पाप से पीछे हटत हूँ। आत्म साक्षी से निन्दा करता हूँ, गुरु साक्षी से गर्दा करता हूँ और अपनी आत्मा को मैथुन के पाप से पृथक् करता हूँ। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में साधु साध्वियों के चौथे महाव्रत का वर्णन किया गया है। इस महाव्रत में साधु साध्वी तीन करण तीन योग से देव, मनुष्य और तिर्यंच संबंधी मैथुन के सर्वथा त्यागी होते हैं। तस्स इमाओ पंच भावणाओ भवंति। तत्थिमा पढमा भावणा णो णिग्गंथे अभिक्खणं अभिक्खणं इत्थीणं कहं कहइत्तए सिया, केवली बूया णिग्गंथे णं अभिक्खणं अभिक्खणं इत्थीणं कहं कहेमाणे संतिभेया संतिविभंगा संतिकेवली पण्णत्ताओ धम्माओ भंसिज्जा, णो णिग्गंथे णं अभिक्खणं अभिक्खणं इत्थीणं कहं कहित्तए सिय त्ति पढमा भावणा॥१॥ अहावरा दोच्चा भावणा, णो णिग्गंथे इत्थीणं मणोहराई मणोरमाइं इंदियाई Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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