Book Title: Acharang Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अध्ययन १५
३५१
है। अतः निर्ग्रन्थ साधु को स्त्री-पशु-नपुंसक से युक्त शय्या और आसन आदि का सेवन नहीं करना चाहिये। यह पांचवीं भावना है। .
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में चौथे महाव्रत की पांच भावनाओं का वर्णन किया गया है जो संक्षेप में इस प्रकार है - १. साधु स्त्रियों की कामविषयक कथा नहीं करे २. विकार दृष्टि से स्त्रियों के अंगोपांगों को नहीं देखे ३. पूर्व में भोगे हुए कामभोगों का स्मरण नहीं करे ४. परिमाण से अधिक एवं रूखा सूखा आहार भी परिमाण से अधिक नहीं करे तथा सरस आहार का सेवन भी नहीं करे और ५. स्त्री पशु नपुंसक युक्त शय्या (उपाश्रय) आसन आदि का सेवन नहीं करे।
चौथे महाव्रत की सम्यक् परिपालना के लिये ये पांचों भावनाएँ आवश्यक हैं।
एतावताव चउत्थे महव्वए सम्मं काएण फासिए जाव आराहिए या वि भवइ, चउत्थं भंते! महव्वयं मेहुणाओ वेरमणं॥
: भावार्थ - इस प्रकार इन पांच भावनाओं से युक्त चौथे महाव्रत का सम्यक् प्रकार से काया से स्पर्श करने, पालन करने, गृहीत महाव्रत को भली भांति पार लगाने, उसका कीर्तन करने तथा उसमें अंत तक अवस्थित रहने पर भगवान् की आज्ञा का आराधन हो जाता है। यह मैथुन विरमण रूप चौथा महाव्रत है। हे भगवन् ! मैं इसमें उपस्थित होता हूँ।
अहावरं पंचमं भंते! महव्वयं सव्वं परिग्गहं पच्चक्खामि, से अप्पं वा, बहुं वा, अणुं वा, थूलं वा, चित्तमंतं वा, अचित्तमंतं वा, णेव सयं परिग्गहं गिण्हिज्जा, णेवण्णेहिं परिग्गहं गिण्हाविजा, अण्णंपि परिग्गहं गिण्हतं ण समणुजाणिज्जा जाव वोसिरामि॥
भावार्थ - इसके पश्चात् हे भगवन् ! मैं पांचवें महाव्रत को स्वीकार करता हूँ जिसमें मैं सब प्रकार के परिग्रह का त्याग करता हूँ। मैं थोड़ा या बहुत, सूक्ष्म या स्थूल, सचित्त या अचित्त किसी भी प्रकार के परिग्रह को स्वयं ग्रहण नहीं करूँगा, न दूसरों से ग्रहण कराऊँगा और न परिग्रह ग्रहण करने वालों का अनुमोदन करूँगा यावत् मैं अपनी आत्मा को परिग्रह से सर्वथा पृथक् करता हूँ। .
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में साधु साध्वियों के पांचवें महाव्रत का वर्णन किया गया है। इस महाव्रत में साधु या साध्वी सर्व प्रकार के परिग्रह.का तीन करण तीन योग से त्याग करते हैं।
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