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अध्ययन १५
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पडिसंवेएइ, मणुण्णामणुण्णेहिं फासेहिं णो रजिजा णो सज्जिजा णो गिज्झिजा,
णो मुज्झिज्जा, णो अज्झोववजिज्जा णो विणिग्यायमावजिजा, केवली बूया, णिग्गंथे णं मणुण्णामणुण्णेहिं फासेहिं सज्जमाणे जाव विणिग्घायमावज्जमाणे, संतिभेया संतिविभंगा, संति केवली पण्णत्ताओ धम्माओ भंसिज्जा।
णो सक्का फासमवेएउं, फासविसयमागयं। रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए॥ फासओ जीवा मणुण्णामणुण्णाई फासाइं पडिसंवेएइ त्ति पंचमा भावणा॥ कठिन शब्दार्थ - पडिसंवेएइ - संवेदन (अनुभव) करता है।
भावार्थ - इसके पश्चात् पांचवीं भावना इस प्रकार है-स्पर्शेनेन्द्रिय से जीव मनोज्ञ और अमनोज्ञ स्पर्शों का अनुभव करता है किन्तु भिक्षु (साधु साध्वी) उन मनोज्ञ और अमनोज्ञ स्पर्शों में आसक्त न होवे, आरक्त न होवे, गृद्ध न होवे, मूछित न होवे, अति आसक्त न होवे और न ही उन स्पर्शों में राग द्वेष करे। केवली भगवान् का कथन है कि जो निर्ग्रन्थ मनोज्ञ और अमनोज्ञ स्पर्थों में आसक्त होता है यावत् रागद्वेष करता है वह शांति रूप चारित्र को नष्ट करता है, शांति. को भंग करता है और शांति रूप केवली प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। ___ ऐसा संभव नहीं है कि स्पर्शनेन्द्रिय प्रदेश में आए स्पर्श का अनुभव नहीं हो अत: भिक्षु (साधु साध्वी) उन मनोज्ञ और अमनोज्ञ स्पर्शों में होने वाले राग द्वेष का त्याग करे।
. अतः स्पर्शनेन्द्रिय से जीव मनोज्ञ अमनोज्ञ सभी प्रकार के स्पर्शों का अनुभव करता है किन्तु निर्ग्रन्थ उन स्पर्शों में आसक्त नहीं हो यावत् राग द्वेष नहीं करे। यह पांचवीं भावना है। _एतावताव पंचमे महव्वए सम्मं काएण फासिए पालिए तीरिए किट्टिए अवट्ठिए आणाए आराहिए यावि भवइ, पंचमं भंते! महव्वयं परिग्गहाओ वेरमणं॥
भावार्थ - इस प्रकार इन पांच भावनाओं से युक्त पांचवें महाव्रत का सम्यक् प्रकार से काया से स्पर्श करने, पालन करने, गृहीत (ग्रहण किये हुए) महाव्रत को भलीभांति पार लगाने, उसका कीर्तन करने तथा उसमें अंत तक अवस्थित रहने पर भगवान् की आज्ञा का आराधन हो जाता है। यह परिग्रह विरमण रूप पांचवां महाव्रत है। हे भगवन् ! मैं इसमें उपस्थित होता हूँ।
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