Book Title: Acharang Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 366
________________ अध्ययन १५ ३५३ ........................................................ वजिजा केवली बूया, मणुण्णामणुण्णेहिं रूवेहिं सजमाणे रज्जमाणे जाव विणिग्यायमावजमाणे संतिभेया संतिविभंगा जाव भंसिजा॥ णो सक्का रूवमदर्दु, चक्खुविसयमागयं। रागदोसा उजे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए॥ चक्खुओ जीवो मणुण्णामणुण्णाई रूवाइं पासइ त्ति दोच्चा भावणा॥२॥ भावार्थ - इसके बाद दूसरी भावना यह है-चक्षु(आँख) से जीव मनोज्ञ और अमनोज्ञ सभी प्रकार के रूपों को देखता है किन्तु साधु साध्वी उन मनोज्ञ अमनोज्ञ रूपों में आसक्त न होवे, रागभाव न करे, गृद्ध न होवे, मोहित न होवे, अत्यंत आसक्ति न करे और न ही राग द्वेष करे। केवली भगवान् कहते हैं कि जो साधु मनोज्ञ अमनोज्ञ रूपों में आसक्त होता है यावत् राग द्वेष करता है वह शांति रूप चारित्र को नष्ट करता है शांति को भंग करता है और शांति रूप केवली प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। 1. चक्षुओं के विषय में आये हुए रूपों को नहीं देख पाना संभव नहीं है किन्तु उनके देखने पर जो राग द्वेष उत्पन्न होता है साधु साध्वी उसका परित्याग करे। अतः चक्षुरिन्द्रिय से जीव मनोज्ञ और अमनोज्ञ सभी प्रकार के रूपों को देखता है किन्तु निर्ग्रन्थ साधक उनमें आसक्त नहीं होवे यावत् राग द्वेष नहीं करे। यह दूसरी भावना है। ... अहावरा तच्चा भावणा, घाणओ जीवो मणुण्णामणुण्णाई गंधाइं अग्घायइ, मणुण्णामणुण्णेहिं गंधेहिं णो सज्जिज्जा णो रज्जिजा जाव णो विणिग्यायमावजिज्जा, केवली बूया, मणुण्णामणुण्णेहिं गंधेहिं सज्जमाणे रज्जमाणे जाव विणिग्याय मावजमाणे संतिभेया संति विभंगा जाव भंसिज्जा। णो सक्का गंधमग्घाउं, णासा विसयमागयं। राग दोसा उजे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए॥ घाणओ जीवो मणुण्णामणुण्णाइं गंधाई अग्घायइ त्ति तच्चा भावणा॥३॥ . कठिन शब्दार्थ - अग्घायइ - सूंघता है। भावार्थ - इसके पश्चात् तीसरी भावना इस प्रकार है - नासिका (नाक) से जीव मनोज्ञ और अमनोज्ञ गंधों को सूंघता है किन्तु निर्ग्रन्थ मनोक्ष या अमनोज्ञ गंध में आसक्त न होवे, अनुरक्त न होवे, गृद्ध न होवे, मूछित न होवे, अति आसक्त न होवे और उन पर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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