Book Title: Acharang Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 354
________________ अध्ययन १५ ३४१ अवट्ठिए आणाए आराहिए यावि भवइ, पढमे भंते! महव्वए पाणाइवायाओ वेरमणं॥ कठिन शब्दार्थ - फासिए - स्पर्शित, पालिए - पालित, तीरिए - तीर्ण, किट्टिए - कीर्तित, अवट्ठिए - अवस्थित। भावार्थ - इस प्रकार साधक द्वारा स्वीकृत प्राणातिपात विरमण रूप प्रथम महाव्रत का सम्यक् प्रकार काया से स्पर्श करने पर, पालन करने पर, पार लगाने पर, उसका कीर्तन करने पर उससे अवस्थित रहने पर भगवान् की आज्ञा के अनुरूप आराधन हो जाता है। यह प्राणातिपात विरमण रूप प्रथम महाव्रत है। हे भगवन् ! मैं इसमें उपस्थित होता हूँ। विवेचन - प्रथम महाव्रत की सम्यक् आराधना कैसे हो? इसके लिये पांच क्रम बताए हैं - १. स्पर्शना - सम्यक् श्रद्धा प्रतीति पूर्वक महाव्रत ग्रहण करना २. पालना - ग्रहण करने के बाद उसका शक्ति अनुसार पालन करना ३. तीर्णता - जो महाव्रत स्वीकार कर लिया है उसे अन्त तक पार लगाना चाहिए उसमें चाहे कितनी ही विघ्न-बाधाएँ रुकावटें आएं, कितने ही भय या प्रलोभन आएं परन्तु कृत निश्चय से पीछे न हटना, जीवन के अंतिम श्वास तक उसका पालन करना तीर्ण होना है ४. कीर्तना - स्वीकृत महाव्रत का महत्त्व समझ कर उसकी प्रशंसा करना दूसरों को उसकी विशेषता समझाना कीर्तन करना है ५. अवस्थितता - कितने ही झंझावात आएं भय या प्रलोभन आएं किन्तु गृहीत अर्थात् धारण किये हुए महाव्रत में डटा रहे, विचलित न हो, अवस्थितता है। __अहावरं दोच्चं महव्वयं पच्चक्खामि सव्वं मुसावायं वइदोसं से कोहा वा, लोहा वा, भया वा, हासा वा, णेव सयं मुसं भासिज्जा, णेवण्णेण्णं मुसं भासाविज्जा, अण्णं पि मुसं भासंतं ण समणुजाणिज्जा, तिविहं तिविहेणं मणसा वयसा कायसा तस्स भंते! पडिक्कमामि जाव वोसिरामि॥ ... कठिन शब्दार्थ - मुसावायं - मृषावाद, वइदोसं - वचन के दोषों को, भासिज्जा - बोले। भावार्थ - इसके पश्चात् मैं दूसरा महाव्रत स्वीकार करता हूँ। आज से मैं मृषावाद और सदोष वचन का त्याग करता हूँ। अतः साधु क्रोध से, लोभ सें, भय से या हास्य से न तो स्वयं मृषा, (असत्य-झूठ) बोले, न दूसरों से असत्य बुलवाएं और असत्य बोलने वाले की अनुमोदना भी नहीं करे। इस प्रकार तीन करण तीन योग (मन-वचन-काया) से मृषावाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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