Book Title: Acharang Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 352
________________ अध्ययन १५ ३३९ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ - तदनन्तर दूसरी भावना है-मन को अच्छी तरह जान कर जो मन को पापों से हटाता है वह निर्ग्रन्थ है। जो मन पापकारी है, सावध है, क्रियाओं से युक्त है, कर्मों का आस्रवकारक है, छेदनकारी भेदनकारी है, क्लेशकारी द्वेषकारी है, परितापकारक है, प्राणियों के प्राणों का अतिपात करने वाला है और जीवों का उपघातक है। इस प्रकार के मन को (मानसिक विचारों को) धारण न करे। जिसका मन पापों से रहित है वह निर्ग्रन्थ है। यह दूसरी भावना है। विवेचन - प्रथम महाव्रत की दूसरी भावना में मनोगुप्ति-मन की अशुभ प्रवृत्ति को रोक कर मानसिक चिन्तन की शुद्धता का वर्णन किया गया है। अहावरा तच्चा भावणा, वइं परिजाणाइ से णिग्गंथे, जा य वई पाविया सावज्जा सकिरिया जाव भूओवघाइया तहप्पगारं वई णो उच्चारिज्जा, जे वई परिजाणाइ से णिग्गंथे जा य वई अपाविय त्ति तच्चा भावणा॥३॥ कठिन शब्दार्थ - उच्चारिज्जा - उच्चारण करे, वई - वचन, वाणी, पाविया - प्राणियों का अपकार करने वाली। भावार्थ - तदनन्तर तीसरी भावना यह है - जो साधक वचन का स्वरूप जान कर सदोष वचनों का त्याग करता है वह निर्ग्रन्थ है। जो वचन पापकारी, सावध, क्रियाओं से युक्त, कर्मों का आस्रवजनक, छेदनकारी भेदनकारी, क्लेशकारी, द्वेषकारी है, परिताप कारक है, प्राणियों के प्राणों का अतिपात करने वाला और जीवों का उपघातक है। साधु ऐसे वचनों का उच्चारण न करे। जो वाणी के दोषों को जानकर उन्हें छोड़ता है और पाप रहित निर्दोष वचन का उच्चारण करता है वही निर्ग्रन्थ है। यह तीसरी भावना है। . विवेचन - सदोष एवं पापयुक्त भाषा से जीव हिंसा को प्रोत्साहन मिलता है अतः प्रथम महाव्रत की इस तीसरी भावना में वचन गुप्ति-वाणी की निर्दोषता का कथन किया गया है। - अहावरा चउत्था भावणा-आयाणभंडमत्तणिक्खेवणा समिए से णिग्गंथे, णो अणायाणभंडमत्त णिक्खेवणा समिए णिग्गंथे केवली बूया, आयाणभंडमत्तणिक्खेवणा असमिए से णिग्गंथे पाणाइं भूयाई जीवाइं सत्ताई अभिहणिज्ज वा जाव उद्दविज वा तम्हा आयाणभंडमत्तणिक्खेवणासमिए से णिग्गंथे, णो आयाणभंडमत्त-णिक्खेवणा असमिए त्ति चउत्था भावणा॥४॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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