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आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध
हास्य का अनिष्ट स्वरूप जान कर उसका त्याग कर देता है वही निर्ग्रन्थ है, हंसी मजाक करने वाला (हंसोड) नहीं। यह पांचवी भावना है।
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... विवेचन प्रस्तुत सूत्र में दूसरे महाव्रत की पांच भावनाओं का वर्णन किया गया है।
दूसरे महाव्रत की पांच भावनाएँ संक्षेप में इस प्रकार हैं - १. सोच विचार कर बोले २. क्रोध का त्याग ३. लोभ का त्याग ४. भय का त्याग और ५. हास्य का त्याग। क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य और भय, इन छह कारणों से असत्य बोला जा सकता है। क्योंकि असत्य बोलने के छह कारण मुख्य हैं। अतः असत्य का सर्वथा त्याग करने वाले साधक के लिए यह आवश्यक है कि वह विवेकपूर्वक भाषा बोले ।
एयावता दोच्चे महव्वए सम्मं कारण फासिए जाव आणाए आराहिए या विभवइ । दोच्चे भंते! महव्वए मुसावायाओ वेरमणं ॥
भावार्थ - इस प्रकार दूसरे महाव्रत का सम्यक् प्रकार से काया से स्पर्श करने, पालन करने, गृहीत महाव्रत को भलीभांति पार लगाने, उसका कीर्तन करने एवं उसमें अवस्थित रहने से भगवान् की आज्ञा के अनुसार आराधन हो जाता है। मृषावाद विरमण रूप यह दूसरा महाव्रत है। हे भगवन्! मैं इसमें उपस्थित होता हूँ ।
अहावरं तच्चं भंते! महव्वयं पच्चक्खामि सव्वं अदिण्णादाणं, से गामे वा, णगरे वा, अरण्णे वा, अप्पं वा, बहुं वा, अणुं वा, थूलं वा, चित्तमंतं वा, अचित्तमंतं वा, णेव सयं अदिण्णं गिण्हिज्जा, णेवण्णेहिं अदिण्णं गिण्हाविज्जा, अण्णं पि अदिण्णं गिण्हंतं ण समणुजाणिज्जा जावजीवाए जाव वोसिरामि ॥ कठिन शब्दार्थ - अदिण्णादाणं - अदत्तादान को, अरणे अरण्य - जंगल में, चित्तमंतं- सचित्त ।
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भावार्थ - इसके बाद हे भगवन्! मैं तीसरा महाव्रत स्वीकार करता हूँ। जिसमें सब प्रकार से अदत्तादान का प्रत्याख्यान करता हूँ। वह चाहे गांव में हो, नगर में हो, अरण्य में हो, थोडा हो या बहुत हो, सूक्ष्म हो या स्थूल हो, सचेतन हो या अचेतन हो उसे उसके स्वामी के दिये बिना न तो मैं स्वयं ग्रहण करूँगा, न दूसरे से ग्रहण कराऊँगा और न ही अदत्त ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करूँगा । इस प्रकार यावज्जीवन के लिए तीन करण तीन योग से यह प्रतिज्ञा करता हूँ। साथ ही पूर्वकृत अदत्तादान रूप पाप का प्रतिक्रमण
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