Book Title: Acharang Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध
यथा
पनवणा सूत्र के प्रथम पद में चतुष्पद स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच के चार भेद बतलाये गये हैं एग खुरा, बिखुरा, गंडीपया सणप्फया । इनमें से बिखुरा ( दो खुरा) के भेदों में ऊँट बैल आदि नाम बतलाते हुए 'सरभ' शब्द आता है जिसका अर्थ 'अष्टापद' किया गया है। सरभ शब्द का अर्थ करते हुए 'अभिधान राजेन्द्र कोष' के सातवें भोग में इस प्रकार दिया है यथा 'सरभ- शरभ - परासर इति पर्याये अष्टापदे महाकाय आटव्य पशुविशेषे यो हस्तिनम् अपि पृष्ठे समारोपयति ।'
अर्थ - सरभ का पर्यायवाची शब्द 'परासर' है। अतः 'परासर' और 'सरभ' शब्द का अर्थ है अष्टापद । यह एक जंगली जानवर है जिसका शरीर बहुत बड़ा होता है। जो हाथी को भी अपनी पीठ पर बिठा सकता है। पूज्य श्री अमोलकऋषि जी म. सा. ने "जैन तत्त्व प्रकाश" में लिखा है कि एक अष्टापद में दो हजार सिंहों का बल होता है।
प्रश्न- शक्रेन्द्र शिविका निर्माण आदि सारा कार्य क्यों करता है ?
उत्तर - शक्रेन्द्र यह सब कार्य भक्तिवश करता है क्योंकि वह यह जानता है कि मुझे जिस धर्म का आचरण करने के प्रताप से यह इन्द्र पद मिला है उस परमधर्म तीर्थ के ये स्वामी होने जा रहे हैं। ये धर्म बोध के दाता, उपदेशक, निष्ठापूर्वक पालक होने जा रहे हैं इसलिए इनके द्वारा मुझ जैसे अनेक प्राणियों का कल्याण होने वाला है । इन्द्र सोचता है ऐसे महान् उपकारी महापुरुष की जितनी भक्ति की जाय उतनी थोड़ी है। सीया उवणीया जिणवरस्स जरमरण विप्पमुक्कस्स । ओसत्तमल्लदामा जल थलय दिव्वकुसुमेहिं ॥ 11 सिवियाइ मज्झयारे, दिव्वं वररयण रूवचिंचइयं । सीहासणं महरिहं सपायपीढं जिणवरस्स ॥ २ ॥ आलइयमालमउडो भासुरबोंदी वराभरणधारी । खोमिय वत्थ णियत्थो, जस्स य मोल्लं सयसहस्सं ॥ ३ ॥ छट्टेण उ भत्तेणं अज्झवसाणेण सोहणेण जिणो ।
३१६
-
साहिं विसुज्झतो आरुहइ उत्तमं सीयं ॥ ४ ॥ सीहास णिविट्टो सक्कीसाणा य दोहिं पासेहिं । वीयंति चामराहिं मणिरयण विचित्त दंडाहिं ॥ ५ ॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org