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अध्ययन १५
भावार्थ - तदनन्तर काया के ममत्व और संस्कार का त्याग किये हुए श्रमण भगवान् महावीर स्वामी अनुत्तर वसति के सेवन से अर्थात् निर्दोष स्थान में ठहरने से, अनुत्तर विहार से एवं अनुत्तर संयम, उपकरण, संवर, तप, ब्रह्मचर्य, क्षमा, निर्लोभता, संतुष्टि, समिति, गुप्ति, कायोत्सर्गादि स्थान और अनुत्तर क्रियानुष्ठान से एवं सुचरित के फलस्वरूप निर्वाण और मुक्ति मार्ग - ज्ञान, दर्शन, चारित्र के सेवन से युक्त होकर आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे ।
विवेचन - दीक्षा के बाद विहार के समय भगवान् की कैसी वृत्ति-साधना थी ? इसका उल्लेख प्रस्तुत सूत्र में किया गया है।
एवं वा विहरमाणस्स जे केइ उवसग्गा समुपज्जंति दिव्वा वा माणुस्सा वा तेरिच्छिया वा ते सव्वे उवसग्गे समुप्पण्णे समाणे अणाउले अव्वहिए अदीणमाणसे तिविह मणवयणकायगुत्ते सम्मं सहइ खमइ तितिक्खइ अहियासेइ ॥
• कठिन शब्दार्थ - अणाउले - अनाकुलता से, अव्वहिए - अव्यथित, अदीणमाणसेअदीनमना ।
भावार्थ - इस प्रकार विचरण करते हुए श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को देव, मनुष्य और तिर्यंच संबंधी जो कोई उपसर्ग प्राप्त हुए वे उन सब उपसर्गों को अनाकुलता, अव्यथित, अदीनमना एवं मन-वचन-काया की तीन प्रकार की गुप्तियों से गुप्त होकर सम्यक् प्रकार से सहन करते, उपसर्गदाताओं को क्षमा करते, सहिष्णुभाव धारण करते और शांतिपूर्वक धैर्य से सहन करते थे।
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विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में भगवान् महावीर स्वामी की आत्मरमण की साधना और सहिष्णुता का वर्णन किया गया है।
तओ णं समणस्स भगवओ महावीरस्स एएणं विहारेणं विहरमाणस्स बारसवासा वीइक्कंता, तेरसमस्स वासस्स परियाए वट्टमाणस्स जे से गिम्हाणं दोच्चे मासे चउत्थे पक्खे वइसाहसुद्धे, तस्स णं वइसाहसुद्धस्स दसमीपक्खेणं सुव्वएणं दिवसेणं विजएणं मुहुत्तेणं हत्थुत्तराहिं णक्खत्तेणं जोगोवगएणं पाईणगामिणीए छायाए वियत्ताए पोरिसीए जंभियगामस्स नगरस्स बहिया णईए
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