Book Title: Acharang Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
अध्ययन १५
३०७
महत्त्व रखता है। ठाणांग सूत्र के दसवें ठाणे में दस दानों के अन्दर अनुकम्पा दान भी एक दान है। सम्यक्त्व के पांच लक्षणों में अनुकम्पा भी एक लक्षण है। अनुकम्पा दीन दुःखी प्राणियों पर की जाती है। तीर्थंकर भगवान् के इस वर्षीदान से उनकी उदारता जगत् वत्सलता तो प्रकट होती ही है परन्तु विशेषतः अनुकम्पा दान का महत्त्व प्रकट होता है।
दीन दुःखी जीवों पर अनुकम्पा करके उनके दुःख को दूर करने के लिए जो दान दिया जाता है उसमें श्वेताम्बर तेरह पंथ सम्प्रदाय पाप मानता है परन्तु ये उनकी मान्यता आगमानुकूल 'नहीं है क्योंकि यदि दीन दुःखी अनाथ गरीब को दान देना पाप और संसार बढाने का कारण होता तो संसार का त्याग कर उसी भव में मोक्ष जाने वाले तीर्थंकर भगवान् यह वर्षीदान क्यों देते? इसलिए तीर्थंकर भगवान् द्वारा दिया जाने वाला यह दान इस बात को स्पष्ट करता है कि अनुकम्पा दान भी पुण्य बन्ध एवं आत्म विकास का साधन है। इससे आत्मा की दया भावना और अहिंसक भावना का विकास होता है। आगमों में भी अनेक स्थलों पर अनुकम्पा दान का उल्लेख मिलता है। तुंगिया नगरी के श्रावकों की धर्म भावना एवं उदारता का उल्लेख करते हुए शास्त्रकार ने उनके लिए विशेषण दिया है"अवंगुय दारा" अर्थात् उनके घर के दरवाजे दान के लिए सदा खुले रहते थे। वे किसी भी साम्प्रदायिक एवं जातीय भेदभाव के बिना अपने द्वार पर आने वाले प्रत्येक याचक को दान देते थे। उनके दरवाजे पर आया हुआ कोई भी दीन दुःखी खाली हाथ नहीं जाता था अतः तीर्थंकरों द्वारा दिये जाने वाले इस वर्षीदान को केवल प्रशंसा प्राप्त करने के लिए दिया जाने वाला दान कहना अनुचित है क्योंकि महापुरुष कभी भी प्रशंसा के भूखे नहीं होते हैं। वे जो कुछ भी करते हैं दया भावना और त्याग भावना से करते हैं। अतः तीर्थंकर भगवान् के इस वर्षीदान से उनकी उदारता, जगत् वत्सलता और अनुकम्पा दान के महत्व का उत्कृष्ट आदर्श उपस्थित होता है। जो प्रत्येक धर्मनिष्ठ सद्गृहस्थ के लिए अनुकरणीय और आचरणीय होता है।
वेसमण कुंडलधरा देवा लोगंतिया महिड्डिया।
बोहिंति य तित्थयरं पण्णरससु कम्मभूमिसु॥ : बंभंमि य कप्पंमि य बोद्धव्वा कण्हराइणो मझे।
लोगंतिया विमाणा, अट्ठस वत्था असंखिज्जा॥
For Personal & Private Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org