Book Title: Acharang Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अध्ययन १ उद्देशक ७ .0000000000000000000000000000000000000...................
कठिन शब्दार्थ - अच्चुसिणं - अति उष्ण, सुप्पेण - सूप (छाज) से, वियणेण - पंखे से, तालियंटेण - ताल पत्र के पंखे से, पत्तेण - पत्र से, पत्तभंगेण - पत्ते के टुकड़ों से, साहाए - शाखा से, साहाभंगेण - शाखा के खण्ड से, पिहुणेण - मयूर पंख से, पिहुणहत्येण - मयूर पिच्छी से, चेलेण- वस्त्र से, चेलकण्णेण - वस्त्र खण्ड से, हत्थेण - हाथ से, मुहेण - मुंह से, फुमिज्ज- फूंक देवे, वीइज्ज- हवा करे।
भावार्थ-आहार-पानी के अत्यंत उष्ण होने पर गृहस्थ साधु के निमित्त से सूप से, पंखे से, ताड़ पत्र के पंखे से, अन्य पत्तों से, पत्ते के खण्ड से, शाखा से, शाखा खण्ड से, मयूरपंख से, मयूर पिच्छी से, वस्त्र से, वस्त्र के टुकड़े से, हाथ से या मुख से फूंक देकर हवा करके शीतल करने लगे तो मुनि पहले ही उसे देख कर गृहस्थ को कहे कि- हे आयुष्मन् या हे बहिन! तुम इस आहार को पंखे आदि से ठंडा मत करो, यदि तुम मुझे देना चाहते हो ऐसा ही दे दो। साधु के इस प्रकार कहने पर भी गृहस्थ सूप, पंख आदि से ठंडा करके आहार लाकर दे तो साधु उस आहार पानी को अप्रासुक और अनेषणीय जानकर ग्रहण न करे। ___ विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में वायुकायिक जीवों की यतना के संबंध में उल्लेख किया गया है।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जाव पविढे समाणे से जं पुण जाणिजा असणं वा पाणं वा, खाइमं वा, साइमं वा, वणस्सइकाय पइट्ठियं तहप्पगारं असणं वा, पाणं वा, खाइमं वा, साइमं वा वणस्सइकायपइट्ठियं अफासुर्य अणेसणिजं लाभे संते णो पडिगाहिज्जा। एवं तसकाए वि॥ .
. भावार्थ - जो अशनादिक आहार वनस्पति या त्रस काय पर रखा हुआ हो तो ऐसे आहार को साधु साध्वी अप्रासुक और अनेषणीय जानकर प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे। ___ विवेचन - साधु के निमित्त त्रस या स्थावर किसी भी प्राणी को कष्ट होता हो तो साधु को ऐसा आहार ग्रहण नहीं करना चाहिये। त्रसकाय प्रतिष्ठित में पंचेन्द्रिय प्राणियों को भी समझा जाता है। जैसे गाय, ऊँट आदि पशुओं के ऊपर रखी हुई वस्तु लेने से उसका संतुलन बिगड़ जाने से उनको पीड़ा होती है। मनुष्य के भी सिर या कंधे आदि पर रखी हुई वस्तु उतारने आदि से यदि उसको कष्ट होता हो तो उसे भी नहीं लेना चाहिए।
से भिक्षु वा भिक्खुणी वा जाव पविढे समाणे से जं पुण पाणगजायं
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