Book Title: Acharang Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
शय्यैषणा नामक द्वितीय अध्ययन
प्रथम उद्देशक
पिण्डैषणा नामक प्रथम अध्ययन में यह बताया गया है कि साधु को कैसा आहार किस तरह से ग्रहण करना चाहिये । आहार ग्रहण करने के पश्चात् यह प्रश्न पैदा होता है कि आहार किस स्थान में किया जाय ? कहां ठहरा जाय ? उक्त प्रश्नों का समाधान इस दूसरे शय्यैषणा नामक अध्ययन में किया गया है। शय्या चार प्रकार की कही है - १. द्रव्य शय्या २. क्षेत्र शय्या ३. काल शय्या और ४. भाव शय्या । प्रस्तुत अध्ययन में द्रव्य शय्या का वर्णन करते हुए शय्या के गुण दोषों का वर्णन किया गया है
सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखिज्जा उवस्सयं एसित्तए, अणुपंविसित्ता गामं वा जाव रायहाणिं वा । से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा सअंडं जाव ससंताणयं तहप्पगारे उवस्सए णो ठाणं वा सेज्जं वा णिसीहियं वा चेइज्जा ॥
कठिन शब्दार्थ - ठाणं - स्थान कायोत्सर्ग, उवस्सयं उपाश्रय की, एसित्तए - गवेषणा करना, सेज्जं शय्या - संस्तारक- संथारे का स्थान, णिसीहियं निषीधिका - स्वाध्याय
भूमि ।
भावार्थ साधु या साध्वी उपाश्रय की गवेषणा के लिए ग्राम यावत् राजधानी में जाकर उपाश्रय को जाने, जो उपाश्रय अंडों, यावत् मकड़ी के जालों आदि से युक्त हो वहां कायोत्सर्ग शय्या - संस्तारक और स्वाध्याय न करे ।
सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा अप्पंडं जाव अप्पसंताणयं तहप्पगारे उवस्सए पडिलेहित्ता पमज्जित्ता, तओ संजयामेव ठाणं वा सेज्जं वा णिसीहियं वा चेइज्जा ॥
भावार्थ - साधु या साध्वी जिस उपाश्रय को अण्डों, जीव जंतुओ मकड़ी के जालों आदि से रहित जाने, वैसे उपाश्रय में प्रतिलेखना एवं प्रमार्जना करके यतना पूर्वक ठहरे, बैठे या स्वाध्याय करे ।
विवेचन
प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु या साध्वी को ऐसे निर्दोष एवं
Jain Education International
-
-
-
For Personal & Private Use Only
www.jalnelibrary.org