________________
११२
। आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध •rrrr.000000000000...................................... करे या नहीं करें। अतः साधु का यह पूर्वोपदिष्ट आचार है प्रतिज्ञा है कि वह गृहस्थों से युक्त मकान में निवास, शय्या और स्वाध्याय न करे।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में परिवार से युक्त मकान में ठहरने का निषेध किया है क्योंकि कभी पारिवारिक संघर्ष होने पर साधु के मन में अच्छे एवं बुरे संकल्प विकल्प आ सकते हैं जो कि कर्म बंध का कारण है। अतः साधु-साध्वी को तो ऐसे संघर्षों से दूर रह कर अपनी साधना में ही संलग्न रहना चाहिये। ___आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावइहिं सद्धिं संवसमाणस्स-इह खलु गाहावई अप्पणो सअट्टाए अगणिकायं उज्जालिज वा पज्जालिज्ज वा विज्झाविज्ज वा अह भिक्खू उच्चावयं मणं णियंच्छिज्जा-एए खलु अगणिकायं उज्जालिंतु वा मा वा उजालिंतु पजालिंतु वा मा वा पज्जालिंतु विज्झाविंतु वा मा वा विज्झाविंतु, अह भिक्खू णं पुव्वोवइट्ठा एस पइण्णा एस हेऊ एस कारणे एस उवएसे जं तहप्पगारे उवस्सए णो ठाणं वा सेजं वा णिसीहियं वा चेइज्जा॥६९॥
कठिन शब्दार्थ - सअट्ठाए - अपने प्रयोजन से, विज्झाविज - बुझावे।
भावार्थ - गृहस्थादि से युक्त स्थान में ठहरना साधु-साध्वी के लिए कर्म बंध का कारण है। क्योंकि वहाँ पर गृहस्थ अपने लिए आग सुलगाए, प्रज्वलित करे अथवा बुझाए तब मुनि के मन में ऊंचे-नीचे भाव आ सकते हैं जैसे गृहस्थ अग्नि उज्वलित प्रज्वलित करे या नहीं करे, बुझावे या नहीं बुझावे तो अच्छा। अतः साधु-साध्वियों के लिए यह पूर्वोपदिष्ट आचार है कि वे गृहस्थों के संसर्ग वाले उपाश्रय (स्थान) में निवास, शय्या और स्वाध्याय न करें। ____आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावइहिं सद्धिं संवसमाणस्स-इह खलु गाहावइस्स कुंडले वा, गुणे वा, मणी वा, मुत्तिए वा, हिरण्णे वा, सुवण्णे वा, कडगाणि वा, तुडियाणि वा, तिसरगाणि वा, पालंबाणि वा, हारे वा, अद्धहारे वा, एगावली वा, मुत्तावली वा, कणगावली वा, रयणावली वा, तरुणीयं वा, कुमारिं अलंकियं विभूसियं पेहाए, अह भिक्खू उच्चावयं मणं णियंच्छिज्जा, एरिसिया वा सा णो वा एरिसिया इय वा णं बूया, इय वा णं मणं साइजा। अह
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org