Book Title: Acharang Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
अध्ययन ६ उद्देशक २
भलीभांति प्रतिलेखन करे। यदि पात्र में प्राणी आदि हों तो उन्हें निकाल कर यतना पूर्वक एकान्त में छोड़ दे और रज (धूल) को प्रमार्जित करे। तत्पश्चात् साधु अथवा साध्वी आहार पानी के लिए उपाश्रय से बाहर निकले या गृहस्थ के घर में प्रवेश करे। केवली भगवान् कहते हैं कि - हे आयुष्मन् शिष्य ! प्रतिलेखन प्रमार्जन किये बिना पात्र ले जाना कर्म बंधन का कारण है। क्योंकि यदि पात्र में प्राणी - क्षुद्र जीव जंतु, बीज अथवा हरी तथा सचित्त रज आदि हो तो उनकी विराधना हो सकती है अतः साधु साध्वी को आहार पानी के लिए जाने से पूर्व पात्र का सम्यक्तया प्रतिलेखन प्रमार्जन कर लेना चाहिये तत्पश्चात् ही आहार के लिए यतना पूर्वक उपाश्रय से निकले और गृहस्थ के घर में प्रवेश करे ।
विवेचन - जीवों की विराधना न हो इसके लिए प्रतिलेखन प्रमार्जन आवश्यक है। साधु-साध्वी सायंकाल को पात्र साफ करके बांध करके रखता है और प्रातः उनका प्रतिलेखन कर लेता है, फिर भी आहार पानी के लिए जाते समय पुनः प्रतिलेखन प्रमार्जन आवश्यक है। कभी कभी कोई क्षुद्र जीव जंतु या रज (धूल) आदि पात्र में प्रवेश कर जाय । यदि बिना देखे बिना पूंजे पात्र का उपयोग करे तो उसमें जीव विराधना संभव है। इसीलिए केवली भगवान् ने बिना प्रतिलेखन प्रमार्जन किए पात्र लेकर आहार पानी को जाना कर्म बंध का कारण बताया है ।
२२५
सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं पिंडवाय पडियाए पविट्ठे समाणे सिया से परो आहट्टु अंतोपडिग्गहगंसि सीओदगं परिभाइत्ता णीहट्टु दलइज्जा, तहप्पगारं पडिग्गहगं परहत्थंसि वा परपायंसि वा अफासुयं जाव णो पडिगाहिज्जा, से य आहच्च पडिग्गहिए सिया खिप्पामेव उदगंसि साहरिज्जा, से पडिग्गहमायाए पाणं परिट्ठविज्जा ससिणिद्धाए च णं भूमीए णियमिज्जा ॥
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा उदउल्लं वा ससिणिद्धं वा पडिग्गहं णो आमज्जिज्ज वा जाव पयाविज्ज वा । अह पुण एवं जाणिज्जा विगओदए मे पडिग्गहए छिण्णसिणेहे तहप्पगारं पडिग्गहं तओ संजयामेव आमज्जिज्ज वा जाव पयाविज्ज वा । से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइंकुलं जाव पविसिउकामे पडिग्गहमायाए गाहा वइकुलं पिंडवायपडियाए पविसिज्ज वा णिक्खमिज वा
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org