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अध्ययन ११
२६९
सजिजा - आसक्त हो, रजिजा - रक्त हो, गिज्झिजा - गृद्ध हो, मुज्झिज्जा - मोहित हो, अज्झोववजिज्जा - अत्यंत मूछित (आसक्त) हो। .
भावार्थ - साधु या साध्वी इहलौकिक शब्दों में या पारलौकिक शब्दों में, श्रुत सुने हुए शब्दों में या अश्रुत शब्दों में, देखे हुए या बिना देखे हुए शब्दों में, इष्ट और कांत शब्दों में न तो आसक्त हो, न रक्त (राग भाव से लिप्त) हो, न गृद्ध हो, न मोहित हो, न मूछित हो और न ही अत्यासक्त हो।. ___ यही साधु-साध्वी का समग्र आचार है यावत् उसमें यत्नशील रहे। इस प्रकार मैं कहता हूँ।
विवेचन - साधु साध्वी को राग द्वेष बढ़ाने वाले किसी भी शब्द को सुनने की अभिलाषा नहीं रखनी चाहिए। क्योंकि ऐसे शब्दों को सुनने से चित्त अशांत रहता है, स्वाध्याय एवं ध्यान में विघ्न पड़ता है अतः संयमनिष्ठ साधक को श्रोत्रइन्द्रिय को अपने वश में रखने का प्रयत्न करना चाहिए और असंयम पोषक शब्दों को सुनने की लालसा का त्याग कर के अपनी साधना में संलग्न रहना चाहिए।
- यद्यपि उपर्युक्त सूत्र में आये हुए 'सजेजा' (आसक्त हो) आदि पद एकार्थक लगते हैं, किन्तु. गहराई से सोचने पर इनका पृथक् अर्थ प्रतीत होता है जैसे आसेवना भाव आसक्ति है, मन में प्रीति होना रक्तता/अनुराग है, दोष जान लेने (उपलब्ध होने) पर भी निरन्तर आसक्ति गृद्धि है और अगम्यगमन का आसेवन करना अध्युपपन्न होना है।
॥ चतुर्थ सप्तिका समाप्त॥
शब्द सप्तक नामक ग्यारहवां अध्ययन समाप्त ® .
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