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आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध
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जाने जो चित्रों से आकीर्ण हो, ऐसा उपाश्रय बुद्धिमान् साधु के निर्गमन प्रवेश यावत् धर्मानुयोग चिंतन के लिए योग्य नहीं है अतः ऐसे उपाश्रय की भी आज्ञा नहीं लेनी चाहिये ।
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यह साधु और साध्वी का समग्र आचार है। इस प्रकार मैं कहता हूँ ।
विवेचन - साधु साध्वी को ऐसे स्थान में नहीं ठहरना चाहिये जहां जीवों की हिंसा होती हो, संयम की विराधना होती हो, मन में विकार उत्पन्न होता हो और स्वाध्याय एवं ध्यान में बाधा पड़ती हो।
।। सातवें अध्ययन का प्रथम उद्देशक समाप्त ॥
सातवें अध्ययन का द्वितीय उद्देशक
से आगंतारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा अणुवी उग्गहं जाइज्जा, जे तत्थ ईसरे समहिट्ठाए ते उग्गहं अणुण्णविज्जा कार्म खलु आउसो ! अहालंदं अहापरिण्णायं वसामो जाव आउसो ! जाव आउसंतस्स उग्गहे जाव साहम्मियाए ताव उग्गहं उगिहिस्सामो, तेण परं विहरिस्सामो। से किं पुण तत्थ उग्गहंसि एवोग्गहियंसि जे तत्थ समणाण वा माहणाण वा दंडए वा छत्तए वा जाव' चम्मछेयणए वा तं णो अंतोहिंतो बाहिं णीणिज्जा बहियाओ वा णो अंतो पव़िसिज्जा सुत्तं वा णो पडिबोहिज्जा, णो तेसिं किंचि वि अप्पत्तियं डिणीयं करिज्जा ॥ १५९ ॥
कठिन शब्दार्थ - अंतोहिंतो - भीतर से, णीणिज्जा हुए को, पडिबोहिज्जा प्रतिबोधित - जागृत करे, अप्पत्तियं वाले, पडिणीयं- प्रत्यनीकता - प्रतिकूलता ।
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भावार्थ - साधु धर्मशाला आदि स्थानों में जा कर और विचार कर अवग्रह की याचना करे । अवग्रह की आज्ञा मांगते हुए उक्त स्थानों के स्वामी या अधिष्ठाता से कहे कि हे आयुष्मन् गृहस्थ ! आप हमें यहां जितने समय और जितने क्षेत्र में ठहरने की आज्ञा देंगे, उतने समय और उतने क्षेत्र में ही हम ठहरेंगे तथा हमारे जितने भी साधर्मिक साधु आयेंगे वे भी आपकी आज्ञानुसार उतने काल और उतने ही क्षेत्र में ठहरेंगे। उसके बाद विहार कर जायेंगे ।
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निकाले, सुत्तं - सुप्त-सोए अप्रीतिक- मन को पीडा देने
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