Book Title: Acharang Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
२४४
आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध
___भावार्थ - हे आयुष्मन् शिष्य ! मैंने उन भगवन्तों के मुखारविन्द से इस प्रकार सुना है कि - इस जिन प्रवचन में स्थविर भगवंतों ने पांच प्रकार का अवग्रह कहा है। यथा - १. देवेन्द्र अवग्रह २. राज अवग्रह ३. गृहपति अवग्रह ४. सागारिक अवग्रह और ५. साधर्मिक अवग्रह।
इस प्रकार यह साधु साध्वी का समग्र आचार है। - विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में पांच प्रकार के अवग्रह का वर्णन किया गया है। अवग्रह का
अर्थ है - स्वामित्व। उसके पांच भेद बतलाये गये हैं। यथा - १. देवेन्द्रावग्रह-शक्रेन्द्र और ईशानेन्द्र, इन दोनों का स्वामीपन अनुक्रम से दक्षिण लोकार्द्ध और उत्तर लोकार्द्ध में है। इसलिये उनकी आज्ञा लेना-देवेन्द्रावग्रह' कहलाता है। २. राजावग्रह-भरतादि क्षेत्रों के छह खण्डों पर चक्रवर्ती का अवग्रह होता है। ३. गाथापति (गृहपति) का अवग्रह जैसे माण्डलिक राजा का अपने अधीन देश पर अवग्रह होता है। ४. सागारिक अवग्रह-जैसे गृहस्थ का अपने घर पर अवग्रह होता है। ५. साधर्मिक अवग्रह-समान धर्म वाले साधु, परस्पर साधर्मिक कहलाते हैं, उनका पांच कोस तक क्षेत्र में साधर्मिकावग्रह होता है। अर्थात् शेष-काल में एक मास और चातुर्मास में चार महीने तक साधर्मिकावग्रह होता है। ढाई कोस दक्षिण की
ओर, ढ़ाई कोस उत्तर की ओर, इस प्रकार पांच कोस और ढ़ाई कोस पूर्व की ओर तथा ढ़ाई कोस पश्चिम की ओर, इस प्रकार पांच कोस का अवग्रह होता है। ___इस अवग्रह अध्ययन में तो याचना सम्बन्धी विधि बताई है। दूसरे शय्या अध्ययन में योग्य-अयोग्य शय्या सम्बन्धी विधि बताई है।
॥सातवें अध्ययन का दूसरा उद्देशक समाप्त॥
ॐ अवग्रह प्रतिमा नामक सातवां अध्ययन समाप्त
।। प्रथम चूला समाप्त॥
* * * *
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org