Book Title: Acharang Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध
भावार्थ - साधु या साध्वी स्वपात्र अथवा परपात्र को लेकर बगीचे या उपाश्रय के एकान्त स्थान में जाए जहाँ पर न कोई आता जाता हो और न कोई देखता हो तथा जहाँ पर द्वीन्द्रिय आदि जीव जन्तु यावत् मकड़ी के जाले भी न हों ऐसी अचित्त भूमि पर बैठकर साधु या साध्वी मल मूत्र का त्याग करे ।
उसके पश्चात् वह उस पात्र को लेकर एकान्त स्थान में जाए, जहाँ कोई आता जाता न हो, न कोई देखता हो, जहाँ पर किसी जीव जन्तु की विराधना की संभावना न हो यावत् मकड़ी के जाले न हों ऐसी उद्यान- बाग या दग्ध भूमि वाले स्थंडिल भूमि में साधु साध्वी यता पूर्वक मल मूत्र परठे ।
यही साधु या साध्वी का समग्र आचार है जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप अर्थों में और पांच समितियों से युक्त है। साधु साध्वी को इसके पालन में सदैव सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए ।
त्ति बेमि अर्थात् सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि हे आयुष्मन् जम्बू ! जैसा मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के मुखारविन्द से सुना है वैसा ही मैं तुम्हें कहता हूँ। अपनी बुद्धि से कुछ नहीं कहता हूँ।
विवेचन प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु साध्वी को एकान्त निर्दोष एवं निरवद्य भूमि में मल मूत्र का त्याग करना चाहिये ।
उपर्युक्त सूत्र में यह बताया है कि साधु-साध्वी स्वपात्र में या परपात्र में उच्चारप्रस्रवण. विसर्जन करके उसका परिस्थापन करने के लिए एकांत स्थान पर जावे । परिस्थापन भूमि नजदी या दूर भी होना संभव है। अतः वहाँ तक ले जाने में कुछ समय भी लग सकता है। इसलिए परिस्थापन भूमि तक जाने के मध्यम कालमान को ग्रहण करके लगभग आधा मुहूर्त (२४ मिनिट) तक तो उस उच्चार प्रस्त्रवण में सम्मूर्च्छिम मनुष्यों की उत्पत्ति होने की संभावना नहीं लगती है। इस सूत्र पाठ का पर्यालोचन करके पूज्य बहुश्रुत गुरुदेव इस प्रकार फरमाया करते थे।
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॥ तृतीय सप्तिको समाप्त ॥
* उच्चार-प्रस्त्रवण नामक दसवां अध्ययन समाप्त
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