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अध्ययन १०
२५३
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण थंडिलं जाणिज्जा, खंधंसि वा पीढंसि वा मंचंसि वा मालंसि वा अमुसि वा पासायंसि वा अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि णो उच्चारपासवणं वोसिरिज्जा॥
भावार्थ - साधु साध्वी इस प्रकार जाने कि जो स्थंडिल भूमि स्तम्भ पर है, पीठ पर है, मंच पर है, माले पर है, अटारी और प्रासाद पर है, अथवा इसी प्रकार के किसी अन्य विषम स्थान पर है तो तथाप्रकार की स्थंडिल भूमि में साधु साध्वी मल मूत्र का त्याग न करे।।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण थंडिलं जाणिज्जा अणंतरहियाए पुढवीए ससिणिद्धाए पुढवीए ससरक्खाए पुढवीए मट्टियामक्कडाए चित्तमंताए सिलाए चित्तमंताए लेलुयाए कोलावासंसि वा दारुयंसि वा जीवपइट्ठियंसि वा जाव मक्कडासंताणयंसि वा अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि णो उच्चारपासवणं वोसिरिज्जा॥१६५॥ - भावार्थ - साधु या साध्वी सचित्त पृथ्वी पर, स्निग्ध (गीली) पृथ्वी पर, सचित्त रज से युक्त पृथ्वी पर, सचित्त मिट्टी से बनाई गई जगह पर, सचित्त शिला पर, सचित्त पत्थर के टुकड़ों पर, घुन लगे हुए काष्ठ पर अथवा दीमक आदि बेइन्द्रियादि जीवों से युक्त काष्ठ पर यावत् मकडी के जालों से युक्त भूमि पर मल मूत्र का त्याग न करे। ___ विवेचन - प्रस्तुत मूल पाठ से स्पष्ट होता है कि साधु साध्वी को सचित्त, जीवजन्तु एवं हरियाली से युक्त तथा सदोष भूमि पर मल मूत्र का विसर्जन नहीं करना चाहिये। उसे सदा अचित्त जीव जन्तु आदि से रहित निर्दोष एवं प्रासुक भूमि पर ही मल मूत्र का त्याग करना चाहिये।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण थंडिलं जाणिज्जा, इह खलु गाहावई वा गाहावइपुत्ता वा कंदाणि वा जाव बीयाणि वा परिसाडिंसु वा परिसाडिंति वा परिसाडिस्संति वा अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि णो उच्चारपासवणं वोसिरिज्जा॥ ___ कठिन शब्दार्थ - परिसाडिंसु - फैला रखे हैं, परिसाडिंति - फैलाते हैं, परिसाडिस्संतिफैलायेंगे।
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