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__ आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध
करके औद्देशिक दोष युक्त बनाया है तो इस प्रकार का स्थंडिल जब तक अपुरुषान्तरकृत है अर्थात् किसी के भोगने में नहीं आया है तब तक इस प्रकार की स्थंडिल भूमि में या अन्य उस प्रकार के दोषों से युक्त स्थंडिल में मल मूत्र का त्याग न करे। यदि साधु या साध्वी यह जान ले कि यह स्थंडिल पुरुषान्तरकृत है यावत् अन्य लोगों के द्वारा भोगा हुआ है तो इस प्रकार के स्थंडिल में साधु साध्वी मल मूत्र का त्याग कर सकते हैं।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण थंडिलं जाणिज्जा अस्सं (अस्सिं) पडियाए कयं वा कारियं वा पामिच्चियं वा छण्णं वा घटुं वा मटुं वा लित्तं वा समटुं वा संपधूमियं वा अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि णो उच्चारपासवणं वोसिरिज्जा। __ कठिन शब्दार्थ - कयं - किया, कारियं - कराया, पामिच्चियं - उधार लिया हो, संपधूमियं - अगरबत्ती आदि धूप से सुवासित किया हो।
भावार्थ - साधु या साध्वी इस प्रकार जाने कि किसी गृहस्थ ने साधु के लिये स्थंडिल बनाया है या बनवाया है अथवा उधार लिया है उस पर छत डाली है, संवारा है, विशेष रूप से संवारा है, लीपा पोता है, समतल किया है या दुर्गन्ध दूर करने के लिये धूप से सुवासित किया है इस तरह का अन्य कोई सदोष स्थंडिल हो तो तथा प्रकार के स्थंडिल में साधु साध्वी मल मूत्र को न परठे।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण थंडिलं जाणिज्जा, इह खलु गाहावई वा गाहावइपुत्ता वा कंदाणि वा मूलाणि वा जाव हरियाणि वा अंताओ वा बाहिं णीहरंति बहियाओ वा अंतो साहरंति अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि णो उच्चारपासवणं वोसिरिज्जा॥
कठिन शब्दार्थ - साहरंति - रखते हैं।
भावार्थ - साधु या साध्वी ऐसे स्थंडिल को जाने कि गृहपति या गृहपति के पुत्र साधु साध्वी के लिए कंद, मूल यावत् हरी वनस्पति को अंदर से बाहर निकालते हैं अथवा बाहर से अंदर रखते हैं अथवा अन्य कोई इसी प्रकार का सदोष स्थंडिल है तो तथा प्रकार के स्थंडिल में साधु साध्वी मल मूत्र का त्याग न करे।
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