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आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध .000000000000000000000000000000000.................... तो साधु उन्हें अप्रासुक अनेषणीय जान कर ग्रहण न करे। यदि वह यह जान ले कि इक्षु अंडों यावत् मकडी के जालों से रहित हैं तथा तिरछे काटे हुए भी हैं तो उन्हें प्रासुक एवं एषणीय जान कर मिलने पर ग्रहण कर सकता है।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में इक्षु को ग्रहण करने की विधि बताई गई है। आँवला आदि के मुरब्बे की तरह इक्षु के टुकड़े के भी मुरब्बे बनाएं हुए हों तो फिर वे टुकड़े पूरे अचित्त एवं पूरा भाग खाने योग्य हो जाने से उनको ग्रहण करने पर छिलके आदि को फैंकना नहीं पड़ता है। इस प्रकार के इक्षु को साधु-साध्वी ग्रहण कर सकते हैं। इक्षु के वन (बगीचे) में इक्षु संबंधी अनेक वस्तुओं का निर्माण होता है। वहाँ पर मुरब्बे आदि भी बनाए जाते हैं। इक्षु रस तो निकालने के कुछ देर (१५-२० मिनिट) बाद अचित्त हो जाने से अन्य सचित्त वस्तुओं के संघट्टे में नहीं हो तो ग्रहण किया जा सकता है।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखिज्जा ल्हसुणवणं उवागच्छित्तए, तहेव तिण्णि वि आलावगा, णवरं ल्हसुणं॥ से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखिज्जा ल्हसुणं वा ल्हसुणकंदं वा ल्हसुणचोयगं वा ल्हसुणणालगं वा भुत्तए वा से जं पुण जाणिज्जा ल्हसुणं वा जाव ल्हसुणबीयं का सअंडं जाव णो पडिगाहिज्जा एवं अतिरिच्छछिण्णे वि तिरिच्छछिण्णे जाव पडिगाहिज्जा॥१६०॥
कठिन शब्दार्थ - ल्हसुणवणं - लहसुन के वन में, ल्हसुणणालगं - लहसुन की नाल को।
भावार्थ - साधु अथवा साध्वी यदि किसी कारण से लहसुन के वन में ठहरना चाहें तो पूर्व की भांति तीनों ही आलापक समझ लेने चाहिये, केवल इतना विशेष है कि यहां पर लहसुन का अधिकार है। साधु या साध्वी लहसुन को, लहसुन के कंद, लहसुन की छाल यावत् लहसुन बीज को जो अंडादि से युक्त है और तिरछा छेदन किया हुआ नहीं है तो उसे ग्रहण न करे यदि वह अंडों यावत् मकडी के जालों से रहित है, तिरछा छेदन किया हुआ है तो उसे प्रासुक एवं एषणीय जान कर मिलने पर ग्रहण कर सकता है।
विवेचन - निशीथ सूत्र उद्देशक १५, ५, १२ एवं उद्देशक १६, ४, ११ में यह स्पष्ट किया गया है कि यदि साधु साध्वी सचित्त आम्र एवं सचित्त इक्षु ग्रहण करता है तो उसे चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है।
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