Book Title: Acharang Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अध्ययन ६ उद्देशक २
२२७ orror......... ................................ का सदैव यत्न करना चाहिये। ऐसा मैं कहता हूँ अर्थात् श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बू स्वामी से कहते हैं कि - हे आयुष्मन् जम्बू! जैसा मैंने भगवान् महावीर स्वामी के मुखारविन्द से सुना वैसा ही मैं तुम्हें कहता हूँ। अपनी बुद्धि से कुछ नहीं कहता हूँ।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में स्पष्ट बताया गया है कि साधु या साध्वी सचित्त पानी को ग्रहण न करे और यदि कभी असावधानी से सचित्त पानी ग्रहण कर लिया हो तो उसे अपने उपयोग में नहीं लेवे और गृहस्थ को वापिस लौटा दे, यदि गृहस्थ वापिस लेना स्वीकार नहीं करे तो एकान्त स्थान में जाकर निर्दोष भूमि में परठ दे।
टीकाकार ने सचित्त पानी देने के चार कारण बताए हैं - - १. गृहस्थ की अनभिज्ञता - वह यह नहीं जानता हो कि साधु साध्वी सचित्त पानी लेते हैं या नहीं।
२. शत्रुता - साधु साध्वी को बदनाम करके उसे लोगों के सामने सदोष पानी ग्रहण करने वाला बनाने की दृष्टि से। .. ३. अनुकम्पा - साधु साध्वी को प्यास से व्याकुल देख कर अचित्त जल न होने के . कारण दया भाव से।
४. विमर्षता - किसी विचार के कारण उसे ऐसा करने को विवश होना पडा हो। । गृहस्थ चाहे जिस परिस्थिति एवं भावना वश सचित्त पानी दे परन्तु साधु साध्वी को किसी भी परिस्थिति में सचित्त जल का उपयोग नहीं करना चाहिए। . " .
वस्त्र आदि की तरह पात्र के संबंध में भी यह बताया गया है कि साधु साध्वी जब भी आहार पानी के लिए गृहस्थ के घर में जाए या शौच के लिए बाहर जाए या स्वाध्याय भूमि में जाए तो अपने पात्र साथ में लेकर जाए। इससे स्पष्ट होता है कि साधु साध्वी को बिना पात्र के कहीं नहीं जाना चाहिए।
__ उपर्युक्त सूत्र में 'से पडिग्गहमायाए पाणं परिट्ठविजा' पाठ का आशय इस प्रकार समझना चाहिए - गृहस्थ के यहाँ से मिट्टी आदि के अन्य पात्र की याचना करके उस पात्र सहित सचित्त पानी को परठ देवे। साधु के स्वयं के पास में रहे हुए पात्र को परठने का विधान यहाँ नहीं समझना चाहिये।
पूज्य बहुश्रुत गुरुदेव का इस सम्बन्ध में इस प्रकार फरमाना था - प्रस्तुत अध्ययन में
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