Book Title: Acharang Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अध्ययन ४ उद्देशक २
१८७ ..........********************************************** पैर कटा हो उसे पैर कटा (लंगड़ा), इसी प्रकार नाक कटा हुआ हो उसे नकटा, कान कट गया हो उसे कनकटा या ओठ कटा हुआ हो उसे कटे हुए ओठ वाला नहीं कहे। इसी प्रकार की अन्य भाषा जिस भाषा के बोलने से लोग क्रोधित हो जाते हैं साधु-साध्वी ऐसी भाषा का प्रयोग न करे।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जहा वेगइयाई रूवाई पासिज्जा तहावि ताइं एवं वइज्जा, तंजहा-ओयंसी ओयंसी इ वा, तेयंसी तेयंसी इ वा, जसंसी जसंसी इ वा, वच्चंसी वच्चंसी इवा, अभिरूवंसी अभिरूवंसी इ वा, पडिरूवंसी पडिरूवंसी इ वा, पासाइयं पासाइए इवा, दरिसणिजं दरिसणीए इवा, जे यावण्णे तहप्पगारा तहप्पगाराहिं भासाहि बुझ्या बुड्या णो कुप्पंति माणवा, ते यावि तहप्पगारा एयप्पगाराहिं भासाहिं अभिकंख भासिज्जा। ___कठिन शब्दार्थ - ओयंसी - ओजस्वी-बलवान्, तेयंसी - तेजस्वी-दीप्तिमान्, जसंसीयशस्वी-कीर्तिमान, वच्चंसी- वर्चस्वी-प्रभावशाली, अभिरूवं - अभिरूप - मनोहर जिसको देखने से आंखों को श्रम न होता हो, पडिरूवं - प्रतिरूप - प्रतिक्षण नवीन रूप जैसा दिखाई देता हो, पासाइयं - प्रासादीय, दरिसणिजं - दर्शनीय।
भावार्थ - साधु अथवा साध्वी यद्यपि कई रूपों को देखते हैं तथापि ऐसे रूपों को देख कर भी उनमें रहे हुए गुणों को ग्रहण करे और बोलने का प्रयोजन हो तो इस प्रकार बोले-ओजस्वी को ओजस्वी, तेजस्वी को तेजस्वी, यशस्वी को यशस्वी, वर्चस्वी को वर्चस्वी, मनोहर को मनोहर, रूपवान को सुरूप, रमणीय को रमणीय, दर्शनीय को दर्शनीय कह कर बुलावे। ये और जितने भी जो व्यक्ति जैसे हैं उन्हें उसी प्रकार कहने से वे मनुष्य क्रोधित नहीं होते हैं अतः साधु-साध्वी सोच-विचार कर निर्दोष भाषा बोले। ___ विवेचन - साधु साध्वी को असाध्य रोगों से पीडित एवं अंगहीन व्यक्ति को पापकारी एवं मर्म भेदी शब्दों से संबोधित नहीं करना चाहिये। अपितु आवश्यकता होने पर प्रिय एवं मधुर सम्बोधनों से संबोधित करना चाहिये।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जहा वेगइयाई रूवाइं पासिज्जा तंजहा-वप्पाणि वा जाव गिहाणि वा, तहावि ताइं णो एवं वइज्जा, तंजहा-सुक्कडे इ वा,
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