Book Title: Acharang Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अध्ययन ५ उद्देशक २
पांचवें अध्ययन का द्वितीय उद्देशक
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पांचवें अध्ययन के प्रथम उद्देशक में वस्त्र ग्रहण करने की विधि बताई गई है। आगमका इस दूसरे उद्देशक में वस्त्र धारण करने की विधि का उल्लेख करते हुए फरमाते हैं सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा अहेसणिज्जाई वत्थाइं जाइज्जा, अहापरिग्गहियाइं वत्थाई धारिज्जा णो धोइज्जा, णो रइज्जा, णो. धोयरत्ताइं वत्थाई धारिज्जा अपलिउंचमाणे गामंतरेसु ओमचेलिए, एयं खलु वत्थधारिस्स सामग्गियं । अहापरिग्गहियाइं - यथापरिगृहीत, धोयरत्ताई - धोये और रंगे
कठिन शब्दार्थ हुए, अपलिउंचमाणे अथवा अल्प वस्त्रधारी ।
गोपन नहीं करते हुए, ओमचेलिए
असार (साधारण) वस्त्र
भावार्थ - भगवान् द्वारा दी गई आज्ञा के अनुरूप साधु साध्वी एषणीय और निर्दोष वस्त्र की याचना करे और जैसे भी वस्त्र मिले उन्हें धारण करे । परन्तु विभूषा के लिए उन वस्त्रों को न धोएँ और न रंगे तथा धोए हुए और रंगे हुए वस्त्रों को धारण भी नहीं करे । ग्रामादि में वस्त्रों को नहीं छिपाते हुए असार (साधारण) और अल्प वस्त्रों को धारण कर सुख पूर्वक विचरण करे । वस्त्रधारी मुनि का यही सम्पूर्ण आचार है ।
प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है
विवेचन साधु साध्वी को प्रभु आज्ञा के अनुसार जिस रूप में निर्दोष वस्त्र प्राप्त हुआ है उसी रूप में उसे ग्रहण करें । विभूषा के लिए साधु वस्त्र को धोए एवं रंगे नहीं। कुछ वस्त्रों का रंग स्वाभाविक मटमैला या पीला होने से उन्हें धारण करने में कोई दोष नहीं है। रंगने का आशय नील, टीनोपोल आदि द्रव्यों से अच्छा चमकीला बनाना होता है। क्योंकि वस्त्र का उपयोग केवल लज्जा ढकने व शीतादि से बचने के लिए होता है न कि शारीरिक विभूषा के लिए। साधु की साधना शरीर व वस्त्रों को सुन्दर बनाने के लिए नहीं अपितु आत्मा को स्वच्छ निर्मल और पूर्ण स्वतंत्र बनाने के लिए है ।
.से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविसिउकामे सव्वं चीवरमायाए गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए णिक्खमिज्ज वा पविसिज्ज वा, एवं बहिया विहारभूमिं वा वियारभूमिं वा गामाणुगामं वा दूइज्जिज्जा । अह
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