Book Title: Acharang Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध
जे भयंतारो उउबद्धियं ( उडुबद्धियं ) वा वासावासियं वा कप्पं उवाइणित्ता तत्थेव भुज भुज्जो संवसंति, अयमाउसो ! कालाइक्कंतकिरिया यावि भवइ ॥ ७८ ॥ कठिन शब्दार्थ - उउबद्धियं (उडुबद्धियं ) - ऋतुबद्ध-शीत काल या उष्ण काल में, वासवासियं चातुर्मास (वर्षावास) उवाइणित्ता बीता कर, भुज्जो - पुनः, कालाइक्कंतकिरिया - कालातिक्रान्त क्रिया ।
भावार्थ - जो साधु साध्वी धर्मशाला आदि ऐसे स्थानों में मासकल्प अथवा चातुर्मास कल्प बीताकर (बिना कारण ) फिर वहीं निवास करते हैं तो हे आयुष्मन् श्रमण ! उन्हें कालातिक्रान्त दोष लगता है।
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विवेचन - जिस स्थान पर साधु साध्वी ने मासकल्प या चातुर्मास कल्प किया हो उसे उसके बाद उस स्थान में बिना कारण के नहीं ठहरना चाहिये । यदि बिना विशेष कारण के वे उस स्थान पर ठहरते हैं तो कालातिक्रान्त दोष लगता हैं। मर्यादा से अधिक एक स्थान पर रहने से गृहस्थों के साथ घनिष्ठ परिचय होता है। जिससे राग भाव में वृद्धि होती हैं और उद्गम आदि अनेक दोष लगने की संभावना रहती है । अतः साधु साध्वी को मासकल्प एवं वर्षावास कल्प के पश्चात् बिना किसी कारण के काल का अतिक्रमण नहीं करना चाहिये ।
२. से आगंतारेसु वा, आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा, परियावसहेसु वा, जे भयंतारो उउबद्धियं (उडुबद्धियं) वा वासावासियं वा कप्पं उवाइणित्ता दुगुणा दु (ति) गुण वा अपरिहरित्ता तत्थेव भुज्जो भुज्जो संवसंति अयमाउसो ! उट्ठाण किरिया यावि भवइ ॥ ७९ ॥
कठिन शब्दार्थ - उवट्ठाण किरिया
उपस्थान क्रिया ।
भावार्थ - जो साधु साध्वी धर्मशाला, मुसाफिर खाना, बगीचे में, बने हुए मकानों में मंठ आदि स्थानों में एक महीना (मासकल्प) अथवा चातुर्मास कल्प रह कर (बीता कर) उससे दुगना (या तिगुना ) काल अन्यत्र व्यतीत किये बिना शीघ्र ही पुनः उन्हीं स्थानों में आकर ठहरते हैं तो हे आयुष्मन् श्रमण ! उन्हें उपस्थान क्रिया नामक दोष लगता है।
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विवेचन – जिस स्थान पर साधु साध्वी ने मास कल्प किया है, उस स्थान पर उससे दुगुना समय दूसरे क्षेत्रों में बिताए बिना वापिस वहीं पर आकर मास कल्प करना नहीं
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