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अध्ययन २ उद्देशक ३
१३३३ 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000. द्वार वाला है, नीचा है अथवा चरक आदि भिक्षुओं से भरा हुआ है कारण विशेष से साधु को ऐसे स्थान में ठहरना पडे तो रात्रि में अथवा विकाल में निकलते हुए या प्रवेश करते समय पहले हाथ से टटोल कर फिर पैर आगे करके यतनापूर्वक गमनागमन करना चाहिये। केवली भगवान् का कथन है कि ऐसे उपाश्रय कर्म बंध के कारण हैं। क्योंकि वहाँ रहे हुए अन्यतीर्थियों, चरक तापसादि के छत्र, पात्र, दंड, लाठी, आसन, नलिका, वस्त्र, यवनिका (मच्छरदानी) मृगछाल, चमडे की थैली अथवा चर्म काटने के उपकरण विशेष जैसे तैसे बिखरे हुए पडे हों, अच्छी तरह से बंधे हुए न हो, हिलडुल रहे हो, अस्थिर हो, उन परिव्राजकों के उपकरणों को नुकसान पहुँचने का डर हो क्योंकि रात्रि या विकाल में साधु अयतना पूर्वक गमनागमन करता हुआ कदाचित् फिसल पडे, गिर जाय तो हाथ पैर या शरीर का अन्य कोई अवयव टूट जाय और वहाँ रहे प्राणी, भूत, जीव, सत्त्व की हिंसा हो जाय अतः साधु का यह पूर्वोपदिष्ट आचार है कि ऐसे उपाश्रय में रहते हुए पहले हाथ से टटोले फिर पैर आगे रखे और यत्नापूर्वक भीतर से बाहर निकले और बाहर से भीतर प्रवेश करे।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु साध्वी को अपनी आत्मा एवं संयम की विराधना से बचने के लिये रात्रि एवं विकाल के समय आवश्यक कार्य से उपाश्रय के बाहर जाते समय एवं पुनः उपाश्रय में प्रवेश होते समय. विवेक पूर्वक एवं यतना पूर्वक गमनागमन करना चाहिये।
से आगंतारेसु वा अणुवीइ उवस्सयं जाइज्जा, जे तत्थ ईसरे जे तत्थ समहिट्ठाए ते उवस्सयं अणुण्णविज्जा कामं खलु आउसो! अहालंदं अहापरिण्णायं वसिस्सामो जाव आउसंतो ! जाव आउसंतस्स उवस्सए जाव साहम्मियाए तओ उवस्सयं गिहिस्सामो, तेणं परं विहरिस्सामो॥
कठिन शब्दार्थ - अणुवीइ - विचार करके, ईसरे - ईश्वर-स्वामी, समहिट्ठाए - समधिष्ठाता-जिन के अधिकार में हो, अणुण्णविज्जा - आज्ञा मांगे, अहालंदं - यथालंदजितने समय के लिए कहा गया हो उतना समय, अहापरिण्णायं - जितनी जगह के लिए कहा गया हो उतनी जगह में।
भावार्थ - साधु साध्वी भलीभांति विचार करके धर्मशाला, उदयान आदि में स्थान की याचना करे। उस स्थान का जो स्वामी हो अथवा जिसके अधिकार में वह स्थान हो, उसकी
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