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आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध rrrrrrrrrrr............................................ पुरओ कट्ट विहरिजा। अप्पुसुए जाव समाहिए तओ संजयामेव गामाणुगामं दूइजिजा॥
कठिन शब्दार्थ - आहर - लाओ, देहि - दे दो, णिक्खिवाहि - रख दो, कलुणवडियाए - दीन वचनों से, गामसंसारियं - गांव में जाकर लोगों को, रायसंसारियंराजा आदि के पास जा कर। ___ भावार्थ - साधु-साध्वी को ग्रामानुग्राम विहार करते हुए मार्ग में चोर मिले और वे . ऐसा कहे कि-हे आयुष्मन् श्रमण! लाओ, ये वस्त्र पात्रादि हमें दे दो, यहाँ रख दो, तो साधु न देवे, किन्तु उन्हें भूमि पर रख दे। चोर उन्हें ले लेवे तो साधु उनको प्राप्त करने के लिए प्रशंसा (स्तुति) करके, हाथ जोड कर दीन वचन कह कर उनकी याचना न करे। यदि मांगना हो तो उन्हें धर्म का उपदेश दे कर समझा कर मांगे अथवा मौन रहे। कदाचित् वे चोर अपना कर्त्तव्य समझ कर साधु को डरावे, धमकावे, आक्रोश करे यावत् हैरान करे अथवा वस्त्रादि छीन ले, फैंक दे तो भी वह साधु गांव में जाकर अथवा राजा के पास जाकर इस घटना का प्रचार नहीं करे और न ही किसी गृहस्थ के पास जाकर कहे कि- हे आयुष्मन् गृहस्थ (गाथापति)! इन चोरों ने हमारे वस्त्रादि उपकरण लूट,लिये हैं, छीन लिये हैं, हमें हैरान या भयभीत किया है। साधु ऐसे विचार मन में भी न लावे और न ही वचन से दुःख प्रकट करे, किन्तु राग-द्वेष से रहित होकर धैर्यता से समाधि पूर्वक यतना के साथ ग्रामानुग्राम विचरे।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में साधु की निर्भयता एवं सहिष्णुता पर प्रकाश डाला गया है।
एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं जं सव्वढेहिं सहिए सया जइजासि त्ति बेमि॥१३१॥
भावार्थ - यही साधु-साध्वियों का समग्र आचार है जिसका सभी अर्थों में यतनापूर्वक आचरण करे। ऐसा मैं कहता हूँ।
तृतीय अध्ययन का तीसरा उद्देशक समाप्त॥ ॐ ईथैषणा नामक तृतीय अध्ययन समाप्त है
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