Book Title: Acharang Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अध्ययन ४ उद्देशक १
१८१ .0000000000000000000000000000000000...................... रस युक्त, फासमंताणि - स्पर्श युक्त, चयोवचयाई - चय उपचय धर्म वाले-न्यूनाधिक होने वाले, विप्परिणामधम्माई - विविध प्रकार के परिणाम-धर्म वाले।
भावार्थ - मैं यह कहता हूं कि-भूतकाल में जितने भी तीर्थंकर भगवंत हो चुके हैं, वर्तमान में जो भी तीर्थंकर हैं और भविष्य में जितने भी तीर्थंकर भगवान् होंगे उन सभी ने भाषा के इन चार भेदों का कथन किया है, करते हैं और करेंगे एवं प्ररूपणा की है, प्ररूपणा करते हैं और प्ररूपंणा करेंगे। उन्होंने यह भी प्रतिपादन किया है कि इन चारों प्रकार की भाषा के पुद्गल अचित्त हैं, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श युक्त हैं, चय-उपचय-न्यूनाधिक होने वाले और विविध परिणाम वाले हैं। .
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण जाणिज्जा-पुव्विं भासा अभासा, भासिज्ज - माणी भासा भासा, भासासमयवीइक्कंता च णं भासिया भासा अभासा।
कठिन शब्दार्थ - पुव्विं भासा - बोलने के पूर्व की भाषा अर्थात् भाषा के पुद्गल, भासिज्जमाणी- बोली जाती हुई, भासासमयवीइक्कंता - बोलने के बाद की-भाषा समय से व्यतिक्रांत हुई।
भावार्थ - साधु या साध्वी को जानना चाहिये कि-बोलने से पूर्व भाषा अर्थात् भाषा के पुद्गल अभाषा है, बोली जाती हुई भाषा ही भाषा है, बोलने के बाद की भाषा अभाषा है।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण जाणिज्जा जा य भासा सच्चा, जा य भासा मोसा, जा य भासा सच्चामोसा, जा य भासा असच्चामोसा, तहप्पगारं भासं सावजं सकिरियं कक्कसं कडुयं णिट्ठरं, फरुसं अण्हयकर छेयणकरि भेयणकरिं परियावणकरिं उवद्दवकरिं भूओवघाइयं अभिकंख भासं णो भासिज्जा॥
कठिन शब्दार्थ - सावज्जं - सावध, सकिरियं - क्रिया युक्त, कक्कसं - कर्कश, कडुयं - कटु-चित्त को उद्वेग करने वाली, णिङ्करं - निष्ठुर, फरुसं - परुष-कठोर, अण्हयकरिआस्रवकारी को, छेयणकरि - छेदकारी को, भेयणकरि - भेदकारी को, परियावणकरि - परिताप देने वाली को, उवद्दवकरि - उपद्रव करने वाली को, भूओवघाइयं - भूतोपघातिनीप्राणियों का घात करने वाली को, अभिकंख - विचार कर, णो - न, भासिज्जा - बोले।
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