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आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध .000000000000000000000000000000000000000000000000000000** आज्ञा लेवे कि हे आयुष्मन् ! जितने समय पर्यंत और जितने भूमिभाग में आप हमें रहने की आज्ञा देंगे, उतने ही समय तक और उतने ही स्थान में हम निवास करेंगे। (कदाचित् गृहस्थ यह पूछे कि तुम कितने साधु यहाँ रहोंगे? तो मुनि को निश्चित् संख्या में नहीं बंधनां चाहिए किन्तु इस प्रकार कहे कि-जितने हमारे साधर्मिक आयेंगे उतने ठहरेंगे और अवधि पूर्ण होने पर अन्यत्र विहार कर जावेंगे।) • विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में उपाश्रय की याचना करने की विधि का उल्लेख किया गया है। मूल पाठ में प्रयुक्त अहालंदं - यथालंद शब्द का अर्द्धमागधी कोष (पृ० ४५७) में इस प्रकार अर्थ किया है - "जितने समय के लिये कहा गया हो उतने समय तक ठहरें', पानी से भीगा हुआ हाथ जितनी देर में सूखे उतने समय को जघन्य यथालन्द काल कहते हैं और पांच दिन की अवधि को उत्कृष्ट यथालन्दकाल कहते हैं तथा उन दोनों के बीच के समय
को मध्य यथालन्द काल कहते हैं। ___ से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जस्सुवस्सए संवसिज्जा तस्स पुव्वामेव णामगोत्तं जाणिजा। तओ पच्छा तस्स गिहे णिमंतेमाणस्स वा अणिमंतेमाणस्स वा, असणं वा पाणं वा, खाइमं वा, साइमं वा, अफासुयं जाव णो पडिगाहिजा॥९०॥
कठिन शब्दार्थ - जस्स - जिसके; उवस्सए - उपाश्रय में, संवसिजा - ठहरे, णामगोत्तं - नाम और गोत्र को, गिहे - घर में, णिमंतेमाणस्स - निमंत्रित करते हुए के।
भावार्थ - साधु अथवा साध्वी जिसके मकान में ठहरे उस गृहस्थ के नाम और गोत्र को पहले ही जानले। तत्पश्चात् उसके घर से निमंत्रण मिलने पर या न मिलने पर अशनादिक आहार ग्रहण न करे।
विवेचन - प्रश्न - शय्यातर किसे कहते हैं ? . उत्तर - मकान मालिक को शय्यातर कहते हैं। शय्यातर शब्द दो शब्दों से मिल कर बना है-शय्या+तर। शय्या का अर्थ है-मकान और तर का अर्थ है-तैरने वाला अर्थात् साधु को मकान का दान दे कर संसार समुद्र से तैरने वाला। शय्यातर शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार है -
"शय्यया साधु साध्वीभ्यः स्थान प्रदानेन तरति संसार समुद्रम् इति शय्यातरः" अर्थ - साधु साध्वियों को ठहरने के लिये शय्या (मकान) देकर जो संसार समुद्र को
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