Book Title: Acharang Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
१७२
आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध trackers.rrrrrrrrrrrr.................................... साथ विहार नहीं करते हैं परन्तु साधु और साध्वी दोनों के नियमों में समानता होने के कारण दोनों का एक साथ उल्लेख कर दिया गया है। अतः जहाँ साधुओं का प्रसंग हो वहाँ आचार्य आदि का और जहाँ साध्वियों का प्रसंग हो वहाँ प्रवर्तिनी आदि का प्रसंग समझना चाहिये।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से पाडिपहिया उवागच्छिजा। ते णं पाडिपहिया एवं वइजा-आउसंतो समणा! अवियाइं इत्तो पडिपहे पासह, तं जहा- मणुस्सं वा गोणं वा महिसं वा पसुं वा पक्खिं वा, सरीसिवं वा, जलयरं वा से आइक्खह दंसेह। तं णो आइक्खिजा, णो दंसिजा। णो तेस्सिं तं परिण्णं परिजाणिजा। तुसिणीए उवेहिज्जा, जाणं वा णो जाणं ति वइजा। तओ संजयामेव गामाणुगामं दूइजिजा॥
कठिन शब्दार्थ - गोणं - बैल, महिसं - महिष (भैंसा) को।
भावार्थ - साधु या साध्वी को ग्रामानुग्राम विहार करते हुए मार्ग में कोई प्रातिपथिक मिले और वह पूछे कि-हे आयुष्मन् श्रमण ! क्या आपने इस मार्ग में मनुष्य, सांड, भैंसा, पशु, पक्षी, सांप, जलचर आदि किसी को देखा है? यदि देखा है तो बतलाओ? तो इस बाबत साधु या साध्वी कोई उत्तर न दे, कुछ भी नहीं बतलावे, उसके इस कथन को स्वीकार नहीं करते हुए मौन रहे तथा ऐसा न कहे कि मैं जानता हूँ किन्तु तुम्हें बताता नहीं हूँ। इस प्रकार यतना पूर्वक ग्रामानुग्राम विचरे।
विवेचन - ऐसा प्रसंग उपस्थित होने पर साधु-साध्वी को मौन रहने का निर्देश दिया है क्योंकि सही उत्तर देने पर उन प्राणियों की हिंसा होना संभव है। अतः पूर्ण अहिंसक साधु को प्राणीमात्र के हित की भावना को ध्यान में रखते हुए उस समय मौन रहना चाहिये। ___"जाणं वा णो जाणंति वइज्जा........... अर्थात् जानता हुआ भी मुनि कह दे कि मैं नहीं जानता हूँ। इस पाठ का प्रमाण देकर कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि जीव रक्षा का कार्य हो तो झूठ बोल कर भी मुनि जीव रक्षा करे किन्तु ऐसा कहना गलत है क्योंकि शास्त्रकार झूठ का सर्वथा निषेध करते हैं। दशवैकालिक सूत्र अध्ययन ७ की गाथा १ में कहा है -
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org