Book Title: Acharang Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
अध्ययन ३ उद्देशक ३
१७३ .........................................................
चउण्हें खलु भासाणं, परिसंखाय पण्णवं। दुण्हं तु विणयं सिक्खे, दो ण भासिज्ज सव्वसो॥
इस गाथा में भाषा के चार भेद बताये गये हैं, उनमें से सत्य भाषा और व्यवहार भाषा मुनि के लिए विवेक पूर्वक बोलने का विधान किया गया है। असत्य (झूठ) और मिश्र (सत्य और झूठ दोनों मिले हुए) ये दो भाषा बोलने का मुनि के लिए सर्वथा निषेध किया गया है। शास्त्रकार ने यहाँ 'सव्वसो' शब्द दिया है अर्थात् किसी भी हालत में झूठ नहीं बोले। वास्तव में 'जाणं वा णो जाणंति वइजा' का आशय है मुनि ऐसा न कहे कि - 'मैं जानता हूँ किन्तु तुम्हें बताता नहीं हूँ।' किन्तु ऐसे अवसर पर मौन रखे।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइजमाणे अंतरा से पाडिपहिया उवागच्छिज्जा। ते णं पाडिपहिया एवं वइजा-आउसंतो समणा! अवियाइं इत्तो पडिपहे पासह उदगपसूयाणि कंदाणि वा, मूलाणि वा, तयाणि वा, पत्ताणि वा, पुप्फाणि वा, फलाणि वा, बीयाणि वा, हरियाणि वा, उदगं वा संणिहियं अगणिं वा संणिक्खित्तं से आइक्खह जाव दूइजिजा॥
कठिन शब्दार्थ - उदगपसूयाणि - उदक प्रसूत-जल से उत्पन्न, तयाणि - त्वचाछाल, संणिहियं- संनिहित-संचित, संणिक्खित्तं - व्यवस्थित रखा हुआ। - भावार्थ - साधु अथवा साध्वी को ग्रामानुग्राम विहार करते हुए कोई प्रातिपथिक मिले
और पूछे कि-हे आयुष्मन् श्रमण! क्या आपने इस मार्ग में जल से उत्पन्न होने वाले कंदमूल, छाल पत्र, पुष्प, फल, बीज, हरित एवं जल के स्थान अथवा अग्नि देखी है ? देखी हो तो हमें कहो-बताओ। तब साधु अथवा साध्वी इस विषय में कुछ भी न कहे, मौन रहे। उनके कथन को स्वीकार करता हुआ 'मैं जानता हूँ किन्तु तुम्हें बताता नहीं हूँ' ऐसा न कहे और यतना पूर्वक विहार करे।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइजमाणे अंतरा से पाडिपहिया उवागच्छिज्जा ते णं पाडिपहिया एवं वइज्जा-आउसंतो समणा! अवियाई एत्तो पडिपहे पासह जवसाणि वा जाव सेणं वा विरूवरूवं संणिविटुं, से आइक्खह जाव दूइज्जिज्जा॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org