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आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध •rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr. उन स्थानों में रहे हुए मृग, पशु-पक्षी, सांप, सिंह, जलचर, थलचर और खेचर जीव साधु को देखकर इधर उधर भागेंगे, त्रास पाएंगे, वित्रास को प्राप्त होंगे और बाड़ आदि का आश्रय (शरण) चाहेंगे अथवा "हमको ये साधु भगाना चाहते हैं" ऐसा विचार करेंगे। अतः साधु-साध्वियों का यह पूर्वोपदिष्ट आचार है कि भुजाओं को फैलाकर, ऊपर-नीचे करके न देखे, किन्तु यतना पूर्वक आचार्य उपाध्याय के साथ ग्रामानुग्राम विहार करे।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु या साध्वी को विहार करते समय दर्शनीय स्थलों को नहीं देखना चाहिये। ऐसे स्थलों को देख कर उनके मन में विकार भाव भी जाग सकते हैं और इस तरह झुक कर या ऊपर उठ कर ध्यान से देखते हुए किसी के मन में साधु के प्रति संदेह भी उत्पन्न हो सकता है। अतः साधु या साध्वी को विहार करते समय मार्ग में आने वाले दर्शनीय स्थलों की ओर अपना ध्यान नहीं लगा कर यतना पूर्वक मार्ग तय करना चाहिये।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा आयरिय-उवज्झाएहिं सद्धिं गामाणुगामं दूइज्जमाणे णो आयरिय-उवज्झायस्स हत्थेण वा हत्थं जाव अणासायमाणे तओ संजयामेव आयरिय-उवज्झाएहिं सद्धिं जाव दूइज्जिज्जा॥
भावार्थ - साधु अथवा साध्वी आचार्य-उपाध्याय के साथ ग्रामानुग्राम विहार करता हुआ आचार्य और उपाध्याय के हाथ से अपने हाथ का स्पर्श (टकराहट) नहीं करे। इस प्रकार आशातना न करता हुआ यतना पूर्वक उनके साथ विचरे।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा आयरिय-उवज्झाएहिं सद्धिं दूइजमाणे अंतरा से पाडिपहिया उवागच्छिज्जा। ते णं पाडिपहिया एवं वइज्जा आउसंतो समणा! के तुब्भे? कओ वा एह ? कहिं वा गच्छिहिह ? जे तत्थ आयरिए वा उवज्झाए वा से भासिज वा वियागरिज वा, आयरिय-उवज्झायस्स भासमाणस्स वा वियागरेमाणस्स वा णो अंतरा भासं करिज्जा। तओ संजयामेव अहाराइणिए दूइजिज्जा॥.
। कठिन शब्दार्थ - तुब्भे - तुम, के - कौन हो?, कओ - कहाँ से, एह - आ रहे हो, कहिं - कहाँ, गच्छिहिह - जाओगे, अहाराइणिए - यथा रालिक-रत्नाधिक।
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