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आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध
बताया गया है और बिना देखी भूमि में मल-मूत्र का त्याग करने की प्रवृत्ति को कर्मबन्ध का कारण कहा है। मल-मूत्र त्यागने की भूमि को शास्त्रीय भाषा में 'उच्चारपासवणभूमि' (उच्चार प्रस्रवण भूमि) कहते हैं ।
सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखिज्जा सिज्जा संथारगभूमिं पडिलेहित्तए णण्णत्थ आयरिएण वा उवज्झाएण वा जाव गणावच्छेएण वा बालेण वा वुड्ढेण वा सेहेण वा गिलाणेण वा आएसेण वा अंतेण वा मज्झेण वा समेण वा विसमेण वा पवाएण वा णिवाएण वा तओ संजयामेव पडिलेहिय पडिलेहिय पमज्जिय पमज्जिय तओ संजयामेव बहुफासुर्य सिज्जा संथारगं संथरिजा ॥ १०७॥ कठिन शब्दार्थ- आयरिएण आचार्य के द्वारा, उवज्झा उपाध्याय के द्वारा, गणावच्छेएण- गणावच्छेदक के द्वारा, बालेण बाल साधु के द्वारा, वुड्डेण - वृद्ध साधु के द्वारा, सेहेण - नवदीक्षित के द्वारा, गिलाणेण - रोगी के द्वारा, आएसेण - मेहमान साधु के अंतेण - अंत में (अंदर), मज्झेण - मध्य में, समेण सम भूमि में, विसमेण - विषम भूमि में, पवाएण हवा युक्त स्थान में, णिवाएण- निर्वात वायु रहित स्थान में ।
द्वारा,
भावार्थ - साधु अथवा साध्वी शय्या संस्तारक की भूमि को देखना चाहे तो आचार्य, उपाध्याय यावत् गणावच्छेदक बाल, वृद्ध, नवदीक्षित, रोगी और मेहमान साधु के द्वारा स्वीकार की गयी. ( रखी हुई) भूमि को छोड़कर शेष अन्य स्थान में अंत में, मध्य में, सम या विषम भूमि में हवादार अथवा वायु रहित स्थान में भूमि का प्रतिलेखन और प्रमार्जन करके यतनापूर्वक अत्यंत प्रासुक शय्या संस्तारक को बिछाये ।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में शय्या संस्तारक बिछाने की विधि का उल्लेख किया गया
है ।
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सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा बहुफासुयं सिज्जा संथारगं संथरित्ता अभिकंखिज्जा बहुफासुए सिज्जा संथारए दुरुहित्तए ॥
भावार्थ - साधु अथवा साध्वी उपरोक्त बताये अनुसार शय्या संस्तारक बिछाकर उस प्रासुक शय्या (संथारे) पर यतना पूर्वक चढे अर्थात् यतना पूर्व बैठे ।
सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा बहुफासुए सिज्जासंथारए दुरुहमाणे से पुव्वामेव
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