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आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध .....................reterrorrettressert.kestrors......* उत्तिंगं हत्थेण वा पाएण वा बाहुणा वा उरुणा वा उदरेण वा सीसेण वा काएण वा णावा उस्सिंचणेण वा चेलेण वा मट्टियाए वा कुसपत्तएण वा कुरुविंदेण वा . पिहेहि, णो से तं परिणं परिजाणिज्जा तुसिणीओ उवेहिजा॥
कठिन शब्दार्थ - उत्तिंगं - छेद को, उरुणा - जांघ से, चेलेण - वस्त्र से, कुसपत्तएण - कुश पत्र (तृण विशेष) से, कुरुविंदेण - कुरुविंद नामक तृण विशेष से, पिहेहि - बंद कर दो।
भावार्थ - नौकारूढ़ साधु साध्वी को नौका पर सवार अन्य व्यक्ति इस प्रकार कहे कि - "हे आयुष्मन् श्रमण ! तुम नाव के अमुक छिद्र को अपने हाथ, पैर, भुजा, जंघा, उदर, मस्तक अथवा शरीर से, नौका से जल निकालने के पात्र विशेष से, वस्त्र से, मिट्टी से, दूब से या कुरुविंद नामक तृण विशेष से बंद कर दो तो साधु-साध्वी उन वचनों को स्वीकार नहीं करते हुए मौन रहे।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा णावाए उत्तिंगेणं उदयं आसवमाणं पेहाए उवरुवरि णावं कज्जलावेमाणिं पेहाए णो परं उवसंकमित्तु एवं बूया-आउसंतो गाहावइ! एयं ते णावाए उत्तिंगेण आसवइ उवरुवरि वा णावा कजलावेइ। एयप्पगारं मणं वा वायं वा णो पुरओ कट्ट विहरिज्जा। अप्पुस्सुए अबहिल्लेसे एगंतगएणं अप्पाणं विउसिज्जा समाहीए। तओ संजयामेव णावासंतारिमे उदए अहारियं रीएज्जा॥
एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं जं सव्वटेहिं सहिए सया जइज्जासि त्ति बेमि॥११९॥
कठिन शब्दार्थ - आसवमाणं - आते हुए को, उवरुवरि - एक दूसरे के ऊपर, ऊपरा-ऊपरी कज्जलावेमाणिं - पानी से भर कर डूबती हुई को, अप्पुस्सुए - अल्पोत्सुकउत्सुकता रहित (राग-द्वेष रहित), अबहिल्लेसे - अबर्हिलेश्य-संयम में मनोवृत्ति रखने वाला, सदा आत्म संयम में रत, एगंतगएण - एकान्त गत-राग-द्वेष से रहित होकर, विउसिग्जा - उपकरण शरीर आदि का त्याग करें, अहारियं - जिस प्रकार से ईर्या समिति का पालन हो सके उसी प्रकार से।
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