Book Title: Acharang Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध
बाहर मल मूत्र आदि का त्याग करने के लिये विशाल निर्दोष स्थंडिल भूमि ३. निर्दोष पीठ, फलक, शय्या संस्तारक की प्राप्ति सुलभ हो ४. प्रासुक एवं एषणीय पर्याप्त आहार पानी की सुलभता हो ५. अन्यतीर्थी श्रमण भिक्षुओं अथवा भिखारियों का जमघट न हो। जिस क्षेत्र में उक्त सुविधाएं न हो वहाँ चातुर्मास नहीं करना चाहिए क्योंकि वर्षावास जीवों की रक्षा, संयम की साधना एवं रत्नत्रयी की आराधना के लिए ही किया जाता है ।
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अह पुण एवं जाणिज्जा - चत्तारि मासा वासावासाणं वीइक्कंता, हेमंताण य पंचदसरायकप्पे परिवुसिए, अंतरा से मग्गा बहुपाणा जाव ससंताणगा, जो जत्थ बहवे समण जाव उवागमिस्संति य, सेवं णच्चा णो गामाणुगामं दूइज्जिज्जा ॥
कठिन शब्दार्थ- पंचदसरायकप्पे - पंचदशरात्रकल्प में, पाँच दश दिन बीत जाने पर । भावार्थ - साधु और साध्वी ऐसा जाने कि वर्षाकाल के चार मास व्यतीत हो गये हैं और हेमंत ऋतु के पन्द्रह दिन भी बीत गये हैं, परन्तु मार्ग में बहुत से प्राणी जीव जंतु आदि हैं, श्रमण ब्राह्मणादि अन्य भिक्षुओं ने उस मार्ग से आना-जाना शुरू नहीं किया है, तो ऐसा जानकर साधु साध्वी ग्रामानुग्राम विहार न करे ।
अह पुण एवं जाणिज्जा - चत्तारि मासा वासावासाणं वीइक्कंता हेमंताण य पंचदसरायकप्पे परिवुसिए अंतरा से मग्गा अप्पंडा जाव असंताणगा, बहवे जत्थ समण जाव उवागमिस्संति य, सेवं णच्चा तओ संजयामेव गामाणुगामं दूइज्जिज्जा ॥ ११३॥
भावार्थ - यदि ऐसा जाने कि वर्षा ऋतु के चार मास बीत चुके हैं और हेमंत ऋतु १५ दिन भी व्यतीत हो गये हैं, मार्ग में अंडे, जीव, जंतु आदि नहीं रहे हैं, मार्ग ठीक है, अन्यत के भिक्षुओं और पथिकों का आवागमन प्रारंभ हो गया है तो साधु या साध्वी यतना पूर्वक ग्रामानुग्राम विहार करे ।
विवेचन प्रस्तुत सूत्र में वर्षावास समाप्त होने के बाद ठहरने के संबंध में उत्सर्ग एवं अपवाद मार्ग का कथन किया गया है। वर्षा एवं जीव जंतुओं आदि की उत्पत्ति हो जाने के कारण संयम की विराधना होने की संभावना देख कर संत सती वर्षावास के पश्चात् भी कुछ दिन उसी स्थान पर ठहर सकते हैं । अन्यथा चातुर्मास कल्प पूरा होते ही उन्हें ग्रामानुग्राम विहार कर देना चाहिए।
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