Book Title: Acharang Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध
अयं उवयरए, अयं हंता, अयं इ(ए) त्थमकासी" तं तवस्सिं भिक्खुं अतेणं तेणं ति संकइ । अह भिक्खू णं पुव्वोवइट्ठा एस पइण्णा एस हेऊ एस कारणे एस उसे णो ठाणं वा सेज्जं वा णिसीहियं वा चेइज्जा ॥ ७५ ॥
कठिन शब्दार्थ - उब्बाहिज्जमाणे - बाधित होने से, वियाले द्वार भाग को, अवंगुणिज्जा - खोलेगा, तेणे - चोर, तस्संधिचारी व्यक्ति, अणुपविसिज्जा- प्रवेश कर जाए, वइत्तु - बोलना, उवल्लियइ
विकाल में, दुवारबाहंछिद्र देखने वाला छिपता है,
आवयइ नीचे कूदता है, हडं - चोरी की, उवचरए - उपचरक-साथी, हंता - मारने वाला, इत्थं (एत्थं ) - इस प्रकार अथवा यहाँ, आकासी किया, तेणं-चोर ।
भावार्थ - गृहस्थ के यहाँ रहता हुआ साधु या साध्वी मल मूत्रादि की बाधा होने पर रात्रि में अथवा विकाल में घर का द्वार खोलेगा उस समय कदाचित् कोई चोर या उसका साथी घर में घुस जाएगा तो उस समय साधु को मौन रखना होगा । ऐसी स्थिति में साधु के लिए यह कहना कल्पनीय नहीं है कि यह चोर घर में घुसता है अथवा नहीं घुसता है, छिपता है या नहीं छिपता है, दौडता है ( कूदता है) अथवा नहीं दौडता है बोलता है अथवा नहीं बोलता है, इसने चोरी की या दूसरे ने चोरी की है, इसने गृहस्थ का धन चुराया है या अन्य किसी का धन चुराया है। यह चोर है, यह उसका साथी है, यह मारने वाला है, इसीने यह कार्य किया है। साधु के कुछ नहीं कहने पर गृहस्थ को उस मुनि पर जो वास्तव में चोर नहीं है चोर होने का संदेह हो सकता है। अतः साधु साध्वी का यह पूर्वोपदिष्ट आचार है कि वह गृहस्थ से युक्त मकान में शय्या संस्तारक स्वाध्याय आदि न करे ।
विवेचन प्रस्तुत सूत्र से यह स्पष्ट होता है कि गृहस्थ के साथ ठहरने से साधु साध्वी की साधना में अनेक दोष आने की संभावना है इसलिए साधु साध्वी को गृहस्थ से युक्त मकान में नहीं ठहरना चाहिए तथा ऐसे मकान में भी नहीं ठहरना चाहिए जहाँ मलमूत्र के परिष्ठान का योग्य स्थान न हो । मल मूत्र त्याग के लिए साधु द्वार खोल कर जा सकता है और वापस आने पर बंद भी कर सकता है यह भी इस सूत्र से स्पष्ट होता है ।
सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा तंजहा-तणपुंजेसु वा, पलालपुंजेसु वा सअंडे जाव ससंताणए, तहप्पगारे उवस्सए णो ठाणं वा सेज्जं वा णिसीहियं वा चेइज्जा ॥
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