Book Title: Acharang Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अध्ययन २ उद्देशक २
१२७ torrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr.
भावार्थ - इस संसार में पूर्वादि चारों दिशाओं में रहने वाले बहुत से धर्म श्रद्धालु व्यक्ति हैं। जिन्होंने साधु का आचार तो सम्यक् प्रकार से नहीं सुना, केवल उपाश्रय दान के स्वर्ग आदि फल को सुन कर जो मकान किसी जैन साधु साध्वी के उद्देश्य से पृथ्वी, अप, तेउ, वायु, वनस्पति, त्रस आदि छह काय का महान्, समारंभ, संरंभ तथा आरंभ करके (हिंसा करके) तथा लीपन, आच्छादन, जल छिडकाव, अग्नि प्रज्वलन आदि विविध प्रकार के पापकर्म का आचरण करके बनवाया हो, ऐसे मकान में जो साधु रहते हैं वो द्विपक्ष क्रिया का सेवन करते हैं अर्थात् साधु होकर भी गृहस्थ के समान है अतः हे आयुष्मन्! यह महासावध क्रिया नामक वसति (शय्या) है।
विवेचन - छह काय का आरंभ समारंभ करके साधु साध्वी के लिए बनाये हुए उपाश्रय/मकान में जो साधु ठहरता है तो उसे महा सावध क्रिया लगती है।
उपर्युक्त मूल पाठ में "एगं समणजायं" शब्द आया है उसका आशय है - "एक प्रकार के निर्ग्रन्थ (जैन) साधु-साध्वी के उद्देश्य से।"
: "दुपक्खं ते कम्मं सेवंति" - इस पंक्ति की टीकाकार ने इस प्रकार व्याख्या की हैद्रव्य से वे साधुवेशी है किन्तु साधु जीवन में आधाकर्म दोष युक्त वसति (शय्या) का सेवन करने के कारण भाव से गृहस्थ हैं अर्थात् द्रव्य से साधु के और भाव से गृहस्थ के कर्मों का सेवन करने के कारण वे 'द्विपक्ष-कर्म' का सेवन करते हैं। ____९. इह खलु पाईणं वा पडीणं दाहिणं वा उदीणं वा तं रोयमाणेहिं अप्पणो सयट्ठाए तत्थ तत्थ अगारीहिं अगाराइं चेइयाइं भवंति तंजहा-आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा महया पुढविकायसमारंभेणं जाव अगणिकायए वा उजालियपुव्वे भवइ। जे भयंतारो तहप्पगाराइं आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा उवागच्छंति इयराइयरेहिं पाहुडेहिं वटुंति, एगपक्खं ते कम्मं सेवंति अयमाउसो! अप्पसावजकिरिया यावि भवइ॥ . एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं॥८६॥
. ॥बीओ उद्देसो समत्तो॥ कठिन शब्दार्थ - एगपक्खं - एक पक्ष द्रव्य भाव दोनों से साधुपना होता है।
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