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अध्ययन २ उद्देशक २
प्रस्तुत सूत्र में आए हुए 'ओजस्वी' आदि शब्दों का विशेषार्थ उववाइय सूत्र में श्री उमेशमुनिजी म. सा. ने इस प्रकार किया है
ओजस्वी - ओजस् - मानस हृदय की स्थिरता । सुसम्बद्ध विचारों के अभ्यास के कारण जो आत्मिक स्थिरता पैदा होती है, जिससे अन्य व्यक्तियों को अपने विचारों में तर कर देने की जो जोशीली शक्ति पैदा होती है, उसे 'ओजस्' कहा जाता है। इससे युक्त 'ओजस्वी' ।
तेजस्वी - तेजस्= शरीर की प्रभा । साधना करते-करते साधक शरीर के चारों ओर किरणें सी निकलने लग जाती है। जिससे व्यक्ति दर्शन मात्र से एक मधुर शांति का अनुभव करता है, उसे तैजस् कहते हैं। उससे युक्त तेजस्वी ।
वर्चस्वी - वचस्= सौभाग्यादि से युक्त वाणी अथवा वर्चस् प्रभाव । क्रिया या आचार में व्याप्त ऐसी शक्ति, जिसका लोहा अन्य भी मानते हैं और जो रोब की जननी है, उसे 'वर्चस्' कहा जाता है ।
यशस्वी - यशस् - ख्याति । उपर्युक्त तीनों भावों के मिश्रण के द्वारा लोक में उस चुम्बकीय व्यक्तित्व के प्रति जो प्रशंसात्मक दृष्टि बनती है उसकी जो स्तुति होती है, उसे . 'यशस्' कहते हैं। उससे युक्त यशस्वी ।
॥ द्वितीय अध्ययन का प्रथम उद्देशक समाप्त ॥
द्वितीय अध्ययन का द्वितीय उद्देशक
गाहावई णामेगे सुइसमायारा भवंति से भिक्खू य असिणाणए मोयसमायारे सेतगंधे दुग्गंधे पडिकूले पडिलोमे यावि भवइ, जं पुव्वकम्मं तं पच्छाकम्मं, जं पच्छा- कम्मं तं पुव्वकम्मं तं भिक्खुपडियाए वट्टमाणा करिज्जा वा णो करिज्जा । अह भिक्खुणं पुव्वोवइट्ठा एस पइण्णा एस हेऊ एस कारणे एस उवएसे जं तहप्पगारे उवस्सए णो ठाणं वा सेज्जं वा णिसीहियं वा चेइज्जा ॥ ७२ ॥
कठिन शब्दार्थ- सुइसमायारा - शूचि समाचारा - शूचि धर्म का पालन करने वाले, असिणाणए- स्नान न करने से, मोयसमायारे मोक प्रतिमाधारी, तग्गंधे उस गंध वाला, पडिलोमे- प्रतिलोम - प्रतिकूल, वट्टमाणा - वर्तते ( करते ) हुए।
भावार्थ- कोई गृहस्थ शौचाचार (शूचि धर्म) के पालन करने वाले होते हैं और मुनि
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