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आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध .krrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrs.srx.sxs.ressors. उव्वट्टिज वा सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलिज वा पक्खालिज्ज वा सिणाविज वा सिंचिज वा दारुणा वा दारुपरिणामं कट्ट अगणिकायं उज्जालिज वा पज्जालिज्ज वा उज्जालित्ता पज्जालित्ता कायं आयाविज्ज वा पयाविज वा अहभिक्खूणं पुव्वोवइट्ठा एस पइण्णा एस हेऊ एस कारणे एस उवएसे जं तहप्पगारे सागारिए उवस्सए णो ठाणं वा सेजं वा णिसीहियं वा चेइज्जा॥६७॥ ___कठिन शब्दार्थ - सइत्थियं - स्त्रियों से युक्त, सखुटुं - बालकों और बिल्ली-कुत्ता आदि क्षुद्र जीवों से युक्त, सागारिए - गृहस्थों के संसर्ग से युक्त, सपसुभत्तपाणं - पशुओं से तथा उनके खान-पान की सामग्री से युक्त, संवसमाणस्स - निवास करते हुए, अलसएहाथ पैर आदि का स्तम्भन होना, सूजन आ जाना, विसूइया - विशूचिका-हैजा, छड्डी - वमन, उब्बाहिज्जा - पीडित करे, रोगायंके- रोगांतक-ज्वरादि रोग अथवा शूल आदि प्राणनाशक रोग, कलुणपडियाए - करुणा से प्रेरित होकर, गायं - शरीर को, तेल्लेण - तेल से, घएण - घृत से, णवणीएण - नवनीत (मक्खन) से, वसाए - चर्बी से, अब्भंगिजःमालिश करे, मक्खिज - मर्दन या लेप करे, सिणाणेण - सुगंधित द्रव्य मिश्रित जल से स्नान करावे, कक्केण - कल्क कषाय द्रव्य से मिश्रित जल से, लुद्रेण - लोध से, वण्णेण- वर्ण से, चुण्णेण - चूर्ण से, पउमेण - पद्म से, आघंसिज - घिसे, पघंसिज - बार-बार घर्षण करे, उव्वलिज - मसले, उव्वट्टिज - उबटन करे, सिणाविज - नहलाए, सिंचिज - सिंचित करे, दारुणा- लकड़ी से, दारुपरिणाम - लकड़ी से लकड़ी का परस्पर घर्षण, अगणिकायं - अग्नि को, उज्जालिज - उज्वलित करे, पज्जालिज - प्रज्वलित करे, आयाविज - एक बार तपावे, पयाविज- बार-बार तपावे।
भावार्थ - जो उपाश्रय स्त्री तथा बालक, बिल्ली, कुत्ता आदि क्षुद्र जीव, पशु और पशु के खाने-पीने योग्य पदार्थों से युक्त है ऐसे गृहस्थों के संसर्ग वाले उपाश्रय में साधु या साध्वी नहीं ठहरे। क्योंकि ऐसा करना कर्म बंध का कारण है। गृहस्थ कुलों के साथ रहते हुए साधु को यदि शरीर का सूजन हो जाय, विशूचिका, वमन, ज्वर या शूलादि रोग उत्पन्न हो जाये तो वह गृहस्थ करुणा भाव से प्रेरित होकर उस भिक्षु के शरीर को तेल, घी, मक्खन या वसा से मर्दन करे, मालिश लेपनादि करे, फिर उसे सुगंधित द्रव्य युक्त जल से
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