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अध्ययन २ उद्देशक १
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जीव जंतुओं से रहित उपाश्रय (ठहरने के स्थान) की गवेषणा करनी चाहिये जिससे संयम की विराधना न हो।
से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा अस्सिंपडियाए (अस्संपडियाए) एगं साहम्मियं समुहिस्स पाणाइं भूयाइं जीवाइं सत्ताइं समारब्भ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छिज्ज अणिसिटुं अभिहडं आहट्ट चेएइ तहप्पगारे उवस्सए पुरिसंतरकडे वा अपुरिसंतरकडे वा जाव आसेविए वा अणासेविए वा णो ठाणं वा सेज्जं वा णिसीहियं वा चेइज्जा। एवं वहवे साहम्मिया एगं साहम्मिणिं बहवे साहम्मिणीओ। से भिक्ख वा भिक्खुणी वा से जं पुण उवस्सयं जाणिजा बहवे समण माहण-अतिहिकिवण वणीमए पगणिय पगणिय समुद्दिस्स तं चेव भाणियव्वं॥
भावार्थ - जो उपाश्रय किसी एक साधु के उद्देश्य से प्राण, भूत, जीव, सत्त्व आदि का आरंभ करके बनाया गया है, साधु के लिए खरीदा गया है, उधार लिया गया है, निर्बल से छीन कर लिया गया है, मालिक की आज्ञा लिये बिना प्राप्त किया गया है, ऐसा उपाश्रय चाहे उसके स्वामी ने दूसरे को सौप दिया हो (पुरुषान्तर कृत हो या न हो) सेवन किया हुआ हो या अनासेवित हो, उसमें साधु स्थान (कायोत्सर्ग), शय्या और स्वाध्याय न करे। अर्थात् उस उपाश्रय में नहीं ठहरे।
इसी प्रकार जो उपाश्रय बहुत साधुओं को उद्देश्य करके अथवा एक साध्वी या बहुत सी साध्वियों को उद्देश्य करके बनाया या खरीदा आदि गया हो उसमें भी साधु या साध्वी स्थान-कायोत्सर्ग, शय्या आदि न करे। अर्थात् उस उपाश्रय में नहीं ठहरे।
जो उपाश्रय बहुत से श्रमणों, ब्राह्मणों, अतिथियों, भिखारियों आदि के निमित्त से षट्काय जीवों का आरंभ करके बनाया गया है खरीदा आदि गया है वह पुरुषान्तर कृत हो या अपुरुषान्तर कृत हो तो ऐसे उपाश्रय में कायोत्सर्ग, शय्या संस्तारक एवं स्वाध्याय न करे। अर्थात् उस उपाश्रय में नहीं ठहरे।
- विवेचन - श्रमण शब्द से पांच प्रकार के श्रमणों का ग्रहण होता है। यथा - १. निर्ग्रन्थ (जैन मुनि) २. शाक्य (बौद्ध भिक्षु) ३. तापस ४. गैरुक और ५. आजीविक (गोशालक के अनुयायी)। इन पांचों के साथ जब 'पगणिय पगणिय' शब्द आता है तब जैन साधु भी इन के साथ हैं, ऐसा समझना चाहिए। इस आलापक में पगणिय पगणिय
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