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अध्ययन १ उद्देशक ११
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जहाठियं गिलाणस्स सयइ त्ति तं जहा-तित्तयं तित्तएत्ति वा कडुयं कडुएत्ति कसायं कसायं अंबिलं अंबिलं महुरं महुरं॥६०॥ ____ कठिन शब्दार्थ - हंदह - ले लो, तस्स - उसे, आहरह - दे दो, पलिउंचिय - छिपा कर, इमे - यह, पिंडे - पिण्ड-आहार, लोए - रूक्ष, तित्तए - तिक्त, कडुए - कटु, कसाए - कसैला, अंबिले - अम्ल-खट्टा, महुरे - मधुर-मीठा, सयइत्ति - उपयोगी, तहाठियंतथावस्थित (वैसा), जहाठियं - यथावस्थित (जैसा)।
भावार्थ - भिक्षार्थी मुनि संभोगी या एक स्थान पर ठहरे हुए अथवा ग्रामानुग्राम विचरण करने वाले मुनियों से इस प्रकार कहे कि- यह आहार आप ले लीजिये और आपके साथ वाले रुग्ण मुनि को दे दीजिये। यदि वह रोगी साधु नहीं खाये तो आप खा लेना। ऐसे आहार को प्राप्त करने वाला साधु मन में उस मनोज्ञ आहार को खाने का विचार कर आहार को छिपाते हुए उस मुनि से कहे कि- यह लाया हुआ भोजन आपके लिए पथ्य नहीं है, रूक्ष है, तिक्त है, कटु है, कसैला है, खट्टा है, मीठा है, यह आपके लिए उपयुक्त (उपयोगी) नहीं है तो ऐसा करने वाला साधु मातृ स्थान (माया कपट) का स्पर्श करता है अर्थात् साधु आचार का उल्लंघन करता है। अतः साधु को इस प्रकार नहीं करना चाहिये। किन्तु जैसा भी आहार हो उसे वैसा ही दिखलावे और वैसा ही कहे।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में रोगी साधु की निष्कपट भाव से सेवा-सुश्रूषा करने का आदेश दिया गया है। यदि स्वाद लोलुपता के वश साधु सरस आहार को छिपा कर उस रोगी साधु को दूसरे पदार्थ दिखाता है और उसके संबंध में गलत बातें बताता है तो वह माया-कपट का सेवन करता है।
भिक्खागा णामेगे एवमाहंस समाणे वा वसमाणे वा गामाणुगाम दइज्जमाणे वा मणुण्णं भोयणजायं लभित्ता से य भिक्खू गिलाइ, से हंदह णं तस्साहरह, से य भिक्खू णो |जिज्जा आहारिज्जा से णं णो खलु मे अंतराए आहरिस्सामि, इच्चेयाई आयतणाई उवाइक्कम्म॥६१॥ ।
भावार्थ - भिक्षार्थी साधु साध्वी मनोज्ञ आहार प्राप्त करके संभोगी या एक स्थान पर ठहरे हुए अथवा ग्रामानुग्राम विचरण करने वाले मुनियों से इस प्रकार कहे कि-यह आहार आप ले लो और आपके साथ रहने वाले रुग्ण साधु को दे दो। यदि वे रोगी साधु नहीं
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