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आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध .................................... ................. और अन्य इसी प्रकार के पदार्थ जिनमें खाने योग्य अंश कम और फैंकने योग्य अंश ज्यादा हो अप्रासुक और अनेषणीय जानकर मिलने पर भी ग्रहण न करे।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु को ऐसे पदार्थ ग्रहण नहीं करने चाहिये जिनमें खाने योग्य भाग थोडा हो और फैंकने योग्य अधिक हो जैसे-ईक्षु खंड, मूंग, वाल आदि की फली जो आग आदि के प्रयोग से अचित्त हो चुकी है।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण जाणिज्जा बहु अट्ठियं वा मंसं वा मच्छं वा बहुकंटगं अस्सिं खलु पडिग्गहियंसि अप्पे सिया भोयणजाए बहुउज्झियधम्मिए तहप्पगारं बहु अट्ठियं वा मंसं वा मच्छं वा बहुकंटगं लाभे.संते जाव णो पडिगाहिज्जा॥
कठिन शब्दार्थ - बहु अट्ठियं - बहुत बीजों वाले, मंसं - जिन फलों में गुठलियां ज्यादा और गूदा कम हो, बहुकंटगं - बहुत कांटों वाली, मच्छं - मत्स्य जाति की वनस्पति विशेष।
भावार्थ - साधु या साध्वी बहुत बीजों (गुठलियों) युक्त फल के गूदे को और बहुत कांटों वाली मत्स्य नामक वनस्पति-जिसमें खाने योग्य भाग कम और फैंकने योग्य अंश ज्यादा है उसे अप्रासुक और अनेषणीय जानकर मिलने पर भी ग्रहण न करे।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'बहुअट्ठियं मंसं' और 'मच्छं वा बहुकंटगं' शब्द का कुछ लोग यह अर्थ करते हैं कि बहुत हड्डियों वाला माँस और बहुत काँटों वाला मत्स्य। परन्तु यह अर्थ करना यहां बिल्कुल अप्रासंगिक और अनुचित हैं क्योंकि जैनागमों में मांसाहार का सर्वथा निषेध है और इसे नरक गति में जाने का कारण बताया है। इसलिए प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त मांस एवं मत्स्य शब्द सामिष आहार से नहीं अपितु फलों से संबंधित है। अतः उक्त शब्दों का वनस्पति विशेष अर्थ करना ही उचित है। आगमों एवं वैद्यक आदि कई शास्त्रों में कई स्थानों पर बीज (गुठली) के लिये 'अस्थि' शब्द का प्रयोग हुआ है जैसे प्रज्ञापना सूत्र में कहा है - ‘एगट्ठिया बहुबीयगा' यानी एक अस्थि (बीज) वाले हरड आदि और बहुत अस्थि (बीज) वाले जैसे अनार, अमरूद आदि। इससे स्पष्ट होता है कि उक्त शब्दों का वनस्पति अर्थ में प्रयोग हुआ है।
प्रस्तुत सूत्र के पूर्व भाग में वनस्पति का स्पष्ट निर्देश है और उत्तर भाग में मंस शब्द का उल्लेख है। इस तरह पूर्व एवं उत्तर भाग का परस्पर विरोध दृष्टिगोचर होता है। एक
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